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आलोक के सामने। चूँकि सूर्य तो केवल दिन में प्रकाश में हैं। यहीं आगे महर्षि और कहते हैं कि स्वच्छन्दता रूप फैलाता है और चन्द्रमा चाँदनी में ही/रात्रि में हीं, पर | ज्वर को दूर करने के लिए हमारे शास्त्र उपवास की तरह शास्त्र तो ऐसा है कि जब उसके सान्निध्य में बैठ जाया | हैं और धर्म-ध्यान को सींचने के लिए अमृत-सरणि के जाए, तभी उजेला बिखेरने लगता है, तभी अपनी किरणों समान। उपवास का कोई धार्मिक महत्त्व माना जाय या से अज्ञानांधकार को दूर करने लग जाता है; न रात उसे | न माना जाय, पर आज चिकित्सक यह मानने लगे हैं कि बाँध सकती है, न दिन उसे रोक सकता है, इसीलिए मधुमेह जैसी असाध्य बीमारी में भी यदि दो-चार दिन भी शास्त्र की वन्दना करना अनिवार्य है। बड़ी प्रीति के साथ | उपवास कर लिया जाय तो वह उपवास एकदम रोगी के उसके साथ जुड़ना जरूरी है। तभी कल्याण है। हमारी | रक्त-शर्करा अंश को नीचे लाकर गिरा देता है और परम्परा में शास्त्र को श्रुत कहा गया है, जिनवाणी भी | उससे होने वाले सारे संताप दूर होने लगते हैंकहा गया है और सरस्वती भी। इसीलिए एक भक्त अज्ञानाहि महामन्त्रं, स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्घनम् । शास्त्र को मूर्त रूप में देखता है और कहता है
धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुर्महर्षयः ।। देवि श्री श्रुतदेवते भगवति त्वत्पाद-पकेरुह
ज्ञानसार, 24/6 द्वन्द्वे यामि शिलीमुखत्वमपरं भक्त्या मया प्रार्थ्यते । एक उल्लेख आता है-'पुस्तकी भवति पण्डित:' मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिन-मुखोद्भूते सदा त्राहि मां का, जिसका मन्तव्य है-जिसके पास पुस्तकें हों वह दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती संपजूयामोऽधुना ॥ पण्डित होता है; पर यहीं सवाल उठता है-पुस्तकालय
देवशास्त्रगुरु-पूजन पुस्तकें रखते हैं तो क्या पुस्तकालय को पण्डित मानने हे देवि! हे भगवति! जिस प्रकार भौंरा कमल के
लग जाएँ या कोई वाहक पुस्तकें अपनी पीठ पर लादे चहुँ ओर भटकता रहता है, उसी प्रकार तेरे चरणकमलों
हुए हो तो उसे पण्डित मानने लग जाएँ? वास्तव में शास्त्र के प्रति मुझे आसाक्ति है; हे माता! मेरी प्रार्थना है कि
के भीतर आलोड़न की जरूरत होती है, केवल देखने-भर तुम सदा मेरे चित्त में बनी रहो; हे जिन-मुख से उत्पन्न
से काम नहीं चलता। इसीलिए तो हितोपदेश में यह कहा जिनवाणी! तुम सदा मेरी रक्षा करो और मेरी ओर
गया है कि अच्छी तरह से विचारी गई औषधि के देखकर मुझ पर प्रसन्न होओ, मैं आपकी पूजा करता हूँ,
नामोच्चारण मात्र से, जिस प्रकार रोगी का रोग नष्ट नहीं उपासना करता हूँ। हनुमन्नाटक में उल्लेख आता है - ।
होता, ठीक वैसे ही शास्त्र को लादने भर से रोग का यद्यपि क्षितिपालानामाज्ञा सर्वत्रगा स्वयम् ।
परिहार नहीं होता, उसके भीतर आलोड़न की जरूरत है, तथापि शास्त्र-दीपेन संचलन्त्यवनीश्वराः ।
आलोड़न के बाद जो रस निकले वह उस के पान की हनुमन्नाटकम्, 11/19 अर्थात् क्षितिपालों, भूपालों, राजाओं की आज्ञा
जरूरत है, जिस क्रिया से रस निकले उस क्रिया को करने सर्वत्र प्रमाण मानी जाती है, पर नाटककार कहते हैं कि
की जरूरत है। यदि वह क्रिया न की गई तो सारा राजा के लिए यही उचित है कि वह शास्त्र की आज्ञा
आलोड़न व्यर्थ है, सारा संपर्क व्यर्थ है। से चले; पर जो राजा शास्त्र की आज्ञा में नहीं चलता,
शास्वाण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा: यस्तु क्रियावान्पुरुषः स विद्वान् । उसका विनाश सुनिश्चित है, क्योंकि शास्त्र में किसी एक
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रैण करोत्यरोगताम् ॥ जीवन का नहीं, किसी एक शासनतंत्र का नहीं, जीवनों
हितोपदेश, 1/63 का/शासनतंत्रों का, उनकी श्रृंखला का निचोड़ निबद्ध है
अब सवाल उठता है कि शास्त्र में प्रवेश कैसे हो? और मनुष्य की बुद्धि की सीमा है, वह एक जन्म में किये क्या हर व्यक्ति का शास्त्र में प्रवेश हो जाता है या गये अनुभव के आधार पर अनेक जन्मों के/अनेकतंत्रों के हर व्यक्ति शास्त्र में प्रवेश कर सकता है? शुक्रनीति अनुभवों को कैसे अनुभूत कर पाएगा अर्थात् नहीं कर कहती है कि नही, यह संभव नहीं, क्योंकि नीति का पाएगा।
मूल विनय में है, शास्त्र में श्रद्धा होने से, आस्था होने महर्षियों ने शास्त्र की तुलना एक ऐसे महामंत्र से
से विनयशील व्यवहार आता है; और विनयशील व्यवहार की है, जो सर्पदंश के विष को उतारने के लिए प्रयुक्त
| इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कराता है। बिना इंद्रियों पर होता है। भाव यह है कि मानव-जीवन में कितना ही
विजय प्राप्त किये शास्त्रज्ञान संभव नहीं, अतः जो भयंकर कष्ट क्यों न हो जाए, कितना ही दारुण दुःख क्यों न आ जाए, कितना ही तीक्ष्ण विष क्यों न प्रवेश
इंद्रियविजयी है, उसे ही शास्त्रज्ञान संभव है, अन्य को पा जाए, पर जैसे ही सम्यक् महामंत्र रूपी औषधि का
नहीं। इसलिए पहले अपनी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें, प्रयोग उस पर होता है, वह विष, दुःख, कष्ट क्षणमात्र
अपनी इंद्रियों को अपने साथ चलाना सीखें, तभी शास्त्र में दूर हो जाता है। हमारे शास्त्र इस औषधि के रूप | में प्रवेश कर पाएँगे, अन्यथा शास्त्रज्ञान संभव नहीं।
-मार्च 2002 जिनभाषित 19
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