Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य ____ 'जिनभाषित' में ऐसी उच्चस्तरीय सामग्री आप दिसम्बर 2001 एवं जनवरी 2002 के अङ्क प्राप्त प्रकाशित करेंगे, ऐसा हमने कभी नहीं सोचा था। यह | हुए। एतदर्थ धन्यवाद। दोनों अङ्कों में प्रकाशित सम्पादकीय पत्रिका सचमुच ही दिगम्बर जैनधर्म एवं समाज का अपने-अपने विषयों पर शोधपरक लेख हैं जो जनसामान्य प्रतिबिम्ब बहुत ही आकर्षक एवं सुन्दर ढंग से प्रस्तुत | की भ्रांतियों और मिथ्याधारणाओं के समाधानार्थ प्रकाशस्तंभ करने की दिशा में अच्छा कदम है। तुल्य हैं। आपकी पैनी दृष्टि ने दिसम्बर के अंक में आपके द्वारा लिखित सम्पादकीय, बाहरी आवरण | प्रकाशित 'अर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य' सम्पादकीय पृष्ठ एवं आचार्य श्री विद्यासागर के ससंघ समाचार व में सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद दर्शाते हुए अर्घ्य प्रवचन इसकी उपयोगिता को और बढ़ा देते हैं। सच पूछा | और वंदना-स्तवन के अंतर को स्पष्ट किया है, वह जाये तो ऐसी पत्रिका की आवश्यकता नितान्त अनुभव सर्वथा संगत है। की जा रही थी जो कि समसामयिक जरूरतों के । डॉ. शीतलप्रसाद जी ने जैनदर्शन और न्याय के साथ-साथ आगमसम्मत सिद्धान्तों पर आधारित हो और | प्रकाण्ड विद्वान आ. डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया के हमारे पूज्य गुरुवरों के आशीर्वाद व मार्गदर्शन को इसमें | | व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त लेख में महत्त्वपूर्ण समाहित करती हो। सामग्री दी है। इसी प्रकार डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव का "जैन संस्कृति में पर्यावरण चेतना" नामक लेख में जैन संस्कृति मनीष चौधरी विषयक 'स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र' से परिचय कराया है। 1244, मनिहारों का रास्ता अनेक आगमग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा विषय को अच्छी तरह किशनपाल बाजार जयपुर (म.प्र.) | सुस्पष्ट सुस्पष्ट किया गया है। दर्शन और संस्कृति को विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखना स्तुत्य है। 'जिनभाषित' पत्रिका के अप्रैल-जून 2001 के दो पं. रतनलाल बैनाड़ा का शंका-समाधान स्तंभ तो अङ्क प्राप्त हुए हैं। पत्रिका 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' अनुभव अत्यन्त उपयोगी संदर्भ ग्रन्थ का काम कर रहा है। हुई है। वैज्ञानिक और बुद्धियुग में आपके सम्पादकीय लेख ___ जनवरी 2002 के अङ्क का सम्पादकीय 'शासन प्रशंसनीय व उपयोगी हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन की क्रियान्विति देवता सम्मान्य, पंच परमेष्ठी उपास्य' तो त्रैकालिक में यह पत्रिका प्रेरक और सहयोगी होगी। सामयिक है। प्रतिष्ठा ग्रन्थों में विघ्नविनाशनार्थ शासन अप्रैल 2001 के अंत में डॉ. पन्नालालजी व देवी-देवताओं के पूजन विधान की व्यवस्था या उन्हें ॐ वर्णीत्री तथा चिरोंजाबाई के उल्लेखों को देखकर मुझे हीं आदि शब्दोच्चार द्वारा अर्घ्य समर्पित करने की उत्साह मिला है कि इस चिंतन प्रसार के चिंतक अभी व्यवस्था ने जन सामान्य में कुछ मिथ्याधारणाएँ उत्पन्न की जाग्रत हैं। हैं कि वे भी इन देवी-देवताओं/यक्ष-यक्षणियों की पूजा अर्चना से उन्हें प्रसन्न कर अनेक लौकिक/भौतिक लाभ पं. प्रेमचन्द्र जैन । | प्राप्त कर सकते हैं। Clo सुरेश मिल, डीमापुर(नागालैंड)- 797112 सम्पादकीय में आपने यह सुस्पष्ट कर दिया है कि सुख-समृद्धि किन्हीं देवी-देवताओं की भक्ति से नहीं, .. 'जिनभाषित' पत्रिका के तीन अंक प्राप्त हुए, अपितु पंच परमेष्ठी की भक्ति से होने वाले शुभ कर्मों प्रत्येक अङ्क पिछले अङ्क की तुलना में उत्तरोत्तर विचारोत्तेजक के बन्ध से ही संभव है। प्रकारान्तर से कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं आकर्षक व पठनीय सामग्रीयुक्त लगा। जून के अङ्क में भी 'परस्परोग्रहोजीवानाम्' की व्याख्या करते हुए कहा में 108 मुनि प्रमाणसागर जी का लेख पढ़ा, उनके | गया हैसद्विचार यथार्थ के धरातल पर अमिट सत्य हैं कि जब जीवा विदु जीवाणं, उवयारं कुणदि सव्व पच्चक्खं। महीने के अन्त में पत्रिका आती है तब ऐसा महसूस होता तथ्य वि पहाण-हेऊ पुण्णं च णियमेणं ॥210 है कि माँ जिनवाणी की चिट्ठी आई है। पत्रिका का अर्थात् जीव भी जीवों पर उपकार करते हैं, यह सम्पादन, आलेख, सामग्री सराहनीय हैं। मैं पत्रिका की सबके प्रत्यक्ष ही है, किन्तु उसमें भी नियम से पुण्य और उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूँ। पापकर्म कारण हैं। पुण्य और पापकर्म हमारे शुभ-अशुभ भावों पर निर्भर है। अतः मुख्यतः पंचपरमेष्ठी के माँगीलाल 'मृगेश' आराधन, अर्चना और पूजा से ही शुभ कर्म बैंधेंगे, जिनसे कालापीपल (म.प्र.) | पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक हित भी सधैंगे। विचारात में भी -मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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