Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ ममकार और अहंकार छोडने का नाम है दीक्षा, मुद्रा इस वीतराग को अभिशापनकी दृष्टि नाम (छपारा (म.प्र.), 19 जनवरी 2001, दीक्षा कल्याणक के दिन का प्रवचन आचार्य श्री विद्यासागर जी आपके सामने वैराग्य का दृश्य प्रदर्शित किया । हमारे तीर्थंकर स्वयं दीक्षित होते हैं, वे स्वयंभू होते गया। एक वैभवशाली व्यक्तित्व अपने वैभव को वै-भव | हैं। उन्हें कोई दीक्षा नहीं देता है, न ही वे किसी से दीक्षा यानी भव का कारण समझकर पीठ दिखाकर चल दिया, | लेते हैं और वे किसी को दीक्षा नहीं देते हैं, कोई ले यानी छोड़ कर चल दिया। या यह कहें कि उन्होंने उस लेता है तो ठीक है, नहीं ले तो भी ठीक है। तीर्थंकर बड़े वैभव को अपनी पीठ दिखा दी और आत्मवैभव को | का जीवन ऐसा जीवन होता हैं जिसके बारे में हम कुछ अपने सम्मुख रखकर उसको पाने के लिए अपने कदमों नहीं कह सकते हैं। भगवान के पंचकल्याणक स्वर्गों के को बढ़ाया था। एक हम हैं एक छोटी सी कुटिया होती देव सौधर्म इन्द्र के नेतृत्व में बड़े महोत्सव के रूप में है, बरसात में टप-टप करती है, उसको छोड़ा नहीं जा मनाते है, लेकिन तीर्थंकर भगवान उसके उस कार्य से रहा है। दिव्य वस्त्रों को अपनी शरीर पर धारण करने प्रभावित नहीं होते हैं। उनका वैराग्य चरमोत्कर्ष के लिए वाले आदिकुमार सब त्याग कर दिगम्बरत्व को स्वीकारने होता है, उन्हें जब वैराग्य होता है तो कोई रोक नहीं चले गये। हमारा एक वस्त्र होता है, जो पुराना हो गया सकता। जैसे जो अभी माता-पिता बने थे वे हम से कह है, उसको सिल-सिल कर पहनते रहते हैं। एक पुराने रहे थे-महाराज आदिकुमार को रोको, ये सब मोह के कपड़े को नहीं छोड़ा जाता है। आखिर यह सब क्यों वशीभूत होकर कह रहे थे। लेकिन आदिकुमार का मोह छोड़ा उन्होंने? इसलिए छोडा कि उन्हें जो बाहरी वैभव संसार से नहीं रहा, इसलिये उन्हें अब कोई नहीं रोक मिला था उस वैभव में सारभूत तत्त्व की प्राप्ति नहीं हुई। सकता है। संसार की दशा को बताने वाली मुनि की आत्म वैभव जो सारभूत तत्त्व है, वह उन्हें प्राप्त नहीं हुआ | मुद्रा है जो संसार की सारता और असारता को 'लताती इसलिये उस बाहरी धन संपदारूपी वैभव को असारभूत है। इस वीतराग मुद्रा को देखकर बच्चा भी समझ जाता समझकर भवन से वन को चले गये। अब वन में बैठकर है। यह मुद्रा किसी को अभिशाप नहीं देती, अशीर्वाद भी समस्त आरंभ, परिग्रह से मुक्त होकर अपने वैभव को तीर्थंकर भगवान नहीं देते हैं, उनकी दृष्टि नासाग्र होती देख रहें हैं, आत्म वैभव का रस ले रहे हैं। इस आत्म है। तीर्थंकर भगवान बिहार करते हैं, तो उस समय भी वैभव को पीने के लिए संसार के रिश्ते-नातों को तोड़कर | नासाग्र दृष्टि रहती है, वे किसी की तरफ नहीं देखते हैं, एक अपने आत्मा से नाता जोड़ लिया। पर दुनिया उनको देखती है। तीर्थंकर भगवान की अद्भुत इस संसार के भोगों को कितनी बार भोगा और चर्या है. तो यह दुनिया भी बड़ी अद्भुत है। इसके बारे कितनी बार इन भोगों के ही हम भोग बनकर रह गये से में किसी ने कहाहैं। अनादिकाल से हम इन इन्द्रियों के विषयों के कारण दुनिया दुरंगी, मरवाये सराये। इस संसार के चक्र में फँसे है। यदि हम चाहें तो रागमय कहीं खैर खूबी, कहीं हाय-हाय।। वातावरण में भी विरागमय दृष्टि बना सकते हैं जैसे अभी यह दुनियाँ का सार है, इसमें कहीं पर भी सारभूत आपने देखा होगा कि नीलांजना का नृत्य तो सबके लिए बात नहीं है। सारभूत यदि है तो हमारी आत्मा में है। रागमय दृष्टि बनाने के लिए कारण बना था, लेकिन आप लोगों ने देखा होगा बच्चों को वह बहुत अच्छी आदिकुमार के लिये वह नृत्य विराग का कारण बन गया। लगती है, उसे बंबई की मिठाई कहते हैं, वह देखने में संसार की असारता का भान उनको हो गया और चल तो बहुत अच्छी और बड़ी दिखती है, लेकिन मुँह में दिये इस संसार को छोड़कर और आज उन्होंने दीक्षा ले डालते ही वह पानी-पानी हो जाती है, फिर भी उसका ली है। उन्होंने जब संसार को असार जाना तो वे किसी आकर्षण बना रहता है, वैसी ही दशा आप लोगों की से बोले नहीं। अपने पुत्र भरत को राज्य का भार सौंप है। सब जानते हैं दुनिया में शान्ति नहीं है, फिर भी आप दिया और वन की ओर चले गये। उन्होंने सोचा होगा लोग इस संसार के असारमय वातावरण में रचे पचे हैं। कि जब सब संसार असारमय है, तो हम किसके साथ यह सब दशा मोह के कारण है। भगवान तो वन चले बोलें जो बाहर दिख रहा है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं गये, इसीलिये वे भगवान बन गये। इतना सारा वैभव सब हूँ वह दिखता नहीं है, इसलिए बोलूँ तो किससे बोलूँ? कुछ छोड़कर गये हैं। थोड़ा नही, बहुत छोड़ा है। एक जिसकी तत्त्व की ओर दृष्टि रहती है, वह बाहर की ओर आप हैं फटे कपड़ों को सिल सिल कर पहनते ही जा नहीं देखता। आज तत्त्व दृष्टि नहीं होने के कारण दुनिया रहे हैं, छोड़ने की बात ही नहीं है। यदि थोड़ा सा कुछ की और दृष्टि जा रही है। जैसे आपने पढ़ा सुना होगा, त्याग किया तो दुनिया को दिखाना चाहते हैं, अपने त्याग थोडी सी धरती के कारण आज भारत और पाकिस्तान को। आत्मतत्त्व को देखने की चाह रखने वाला दनिया की क्या दशा है? दोनों तरफ जनहानि और धन हानि को दिखाने की चाह नहीं रखता है। मुनिव्रत को धारण हो रही है। करना बहुत बड़ा कार्य है उसे असिधार व्रत भी कहा 4 मार्च 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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