Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ मुनि श्री समता सागरकृत भक्तामर - दोहानुवाद प्रो. रतनचन्द्र जैन शब्द द्वारा किया है जो भावानुवाद होने से अत्यन्त संक्षिप्त हो गया है और सर्वसाधारण गम्य भी 'सकलवाङ्मयतत्त्वबोधादुद्भूतबुद्धिपटुभिः' इतने लम्बे विशेषण के अर्थ को 'श्रुतपारग' इस छोटे से विशेषण के द्वारा ही अभिव्यक्त कर दिया गया है। 'नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः' के लिए 'मेघ ढके न तेज' तथा 'स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति' के लिए 'द्योतित भुवन समस्त' भावानुवाद द्वारा संक्षिप्तीकरण के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 'यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति' में 'मधुरं विरौति' का अनुवाद 'कुहके' शब्द द्वारा करके तो कवि ने भावानुवाद का श्रेष्ठतम निदर्शन प्रस्तुत किया है, क्योंकि इसमें विम्बात्मकता का काव्यगुण विद्यमान है। ऐसा लगता है कि दोहों में अन्त्यानुप्रास भी बिना किसी विशेष परिश्रम के अपने आप घटित होता गया है। इसने काव्य में संगीतात्मक श्रुतिमाधुर्य का समावेश कर दिया है। पूज्य मुनि श्री समतासागरजी द्वारा प्रणीत भक्तामर स्तोत्र का दोहानुवाद संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकों के लिए बहुमूल्य उपहार है। इससे शब्द और अर्थ दोनों सुगम हो गये हैं। अब काव्यानन्द के साथ भावानन्द की अनुभूति की जा सकती है। दोहे मुनिश्री की काव्य-प्रतिभा का उन्मुक्त घोष करते हैं। उनकी भाषा यह भाव नहीं देती कि यह संस्कृत पद्यों का अनुवाद है, अपितु ऐसा लगता है जैसे वे मौलिक रूप से ही लिखे गये हों। इसकी प्रतीति निम्नलिखित उदाहरणों से हो जाती है। मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार । जल - झलकत शशि बाल ही, पकड़े बिना विचार ॥3 त्रिजग - दुःख - हर प्रभु नमूँ, नमूँ रतन भूमाँहि । नमूँ त्रिलोकीनाथ को, नमुँ भवसिन्धु सुखाँहि ॥26 दोहों की भाषा में तुलसी, रहीम, भूधरदास आदि के व्यक्तित्व की झलक मिलती है। निश्चय ही कवि ने दोहा - साहित्य का गहन अध्ययन कर उनकी भाषा को आत्मसात् किया है, तभी उनकी लेखनी से प्रसूत दोहों में इतनी प्रौढ़ता है। अधोलिखित दोहा तो अपनी भाषात्मक चारुता के कारण हृदय को गहराई तक छू लेता है शत नारी शत सुत जनें, पर तुमसा नहि एक । तारागण सब दिशि धरें, रवि बस पूरब नेक 122 मुनिश्री ने दोहों में परम्परागत लोक- शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जैसे धुति, दूजा, बेरोक, बीर, बखान, करहुँ, लाज आदि । इसीलिए उनमें लोक काव्य जैसी मोहकता और सर्वसाधारण की भाषा का स्वरूप आ गया है। दोहों की उल्लेखनीय विशेषता है गागर में सागर का समाना संस्कृत पद्यों में जिस भाव को प्रकट करने के लिए अनेक शब्दों और अनेक वाक्यों का प्रयोग किया गया है, उस भाव को मुनिश्री ने कुछ ही शब्दों या अत्यन्त छोटे वाक्य में गर्भित कर दिया है, जिससे दोहों में सूत्रों जैसी संक्षिप्तता आ गयी है और सम्पूर्ण अर्थ समासीकृत होकर एक नजर में हृदयंगम हो जाता है। मिताक्षरों में कही हुई बात मस्तिष्क में तुरन्त उतरती है और अमिट हो जाती है। संक्षिप्तता का यह चमत्कार शब्दानुवाद की बजाय भावानुवाद करने से उत्पन्न हुआ है। कोई और होता तो 'पाण्डुपलाशकल्पम्' का अनुवाद 'पलाश के पत्ते की तरह पीला करता, जो शाब्दिक अनुवाद होता, किन्तु कवि ने उसका अनुवाद 'द्युतिहीन' मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International 4 कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों के स्थान में प्रयुक्त हिन्दी शब्दों ने अपनी बिम्बात्मकता के कारण उक्ति को लालित्य से परिपूर्ण कर दिया है, जैसे 'त्रय जग जगमग हों प्रभो तुहि वर दीप रहाय' ( 16 ), यहाँ 'प्रकाश' के लिए 'जगमग' शब्द के प्रयोग से उक्ति में लालित्य आ गया है। सन्त - कवि ने 'अनल्पकान्ति' के लिए 'आभ अदम्य' शब्द का प्रयोग किया है जो बड़ा सशक्त है। 'अदम्य' शब्द भगवान के मुख की आभा को और अधिक अतिशयितरूप में अभिव्यक्त करने की शक्ति रखता है। यह प्रयोग कवि के शब्दचयन का उत्कृष्ट उदाहरण है इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसमें छोटे-छोटे शीर्षकों के द्वारा भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का वर्ण्यविषय संकेतित कर दिया गया है, जो पद्य के अर्थ में प्रवेश करने के लिए प्रवेशद्वार के समान है। इससे भी बड़ा लोकोपयोगी कार्य यह किया गया है कि स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का शब्दश: हिन्दी अनुवाद दे दिया गया है। जिससे पाठकों को संस्कृत पद्यों के शाब्दिक अर्थ को समझने में बड़ी सहायता मिलेगी और परम्परया वे संस्कृत भाषा को सीखने में समर्थ होंगे। अन्वयार्थ के अन्त में दिया गया भावार्थ पद्य के भाव को समझने में सहायक है। भक्तामर स्तोत्र के हार्द को हृदयंगम करने के लिए इससे श्रेष्ठ ग्रन्थ अभी तक मेरी दृष्टि में नहीं आया। प्रत्येक श्रद्धालु के लिये यह ग्रन्थ उसी प्रकार संग्रहणीय है जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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