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तब श्रीराम नगर के निकट पहुंच कर एक चन्द्रप्रभु चैत्यालय में ठहरे व लक्ष्मण को तब श्रीराम ने मेघगर्जनी की तरह गंभीर नगरी में राजा सिंहोदर के पास भेजा लक्ष्मण सिंहोदर को डरा धमका कर श्रीराम सीता वाणी में कहा। अहो सिंदोहरा के पास चैत्यालय में ले आया। तब सिंहोदर हाथ जोड़कर कांपता हुआ श्रीराम सीता के
| तुम्हे जो वजकर्ण कहे वैसा करो। पैरों में पड़ा और बोला- हे देव! आप महाकान्ति के धारी, परम तेजस्वी हो, सुमेरू जैसे हे देवी! हे शोभने! आप अचल पुरूषोत्तम हो, मैं आपका आज्ञाकारी हूँ। ये राज्य आपका स्त्री शिरोमणी हो, हमारे | है। आप चाहो जैसा करो। मैं आप के चरणों की नित्य सेवा, पर करूणा करो, मेरे पति करूंगा। के लिए आपसे भिक्षा मांगती हूँ।
जो आज्ञा!
इस तरह वज्रकर्ण को सिंहोदर से निर्भय किया और मित्रता की।
तदन्तर ये दोनो वीर महाधीर सीता सहित नाना प्रकार अनेक देशों को देखते हुए वंशस्थल नगर कुन्थलगिरी आये। नगर के निकट एक के वृक्षों, भान्ति-भान्ति के पुष्पों से युक्त वन में रमते-रमते वंशधर नामका पर्वत देखा- मानों पृथ्वी को भेद कर निकला हो। जहां बांसों आए, समस्त देवोपुनीत शरीरधारी। पुष्पों के कर्णाभूषण | के बड़े समूह जिनसे दिन में भी सूर्य नहीं दिखता था। लोग नगर को छोड़ कर जा धारण किये। कहीं छोटे वृक्ष में लगी बेल का हिंडोला बना | रहे थे। पहाड़ों के शिखर पर ऐसी ध्वनि हो रही थी जो अब तक नहीं सुनी। दशों कर दोनों भाई झोटा देय-देय कर जानकी को झलाते हैं. दिशाए गूजने लगती है। राम, लक्ष्मण, सीता वहां पहाड़ पर गये। शिखर पर और आनन्द की कथा कहकर विनोद उपजाते हैं।
देखते हैं, देशभूषण और कुलभूषण दो मुनि कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। राम, लक्ष्मण, व सीता ने उन्हें नमस्कार किया- महाभक्तियुक्त दोनों भाई मुनियों के समीप बैठे। उसी समय असुर के आने से महाभयानक शब्द हुआ। मायावी सर्प बिच्छु दोनों मुनियों पर झपट पड़े।
जनक नन्दनी सीता