Book Title: Janak Nandini Sita
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Joil जनक नन्दिनी सीता कथा વોલિં, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय शीलाधर्म की ध्वजा से चिन्हित, वात्सल्य, श्रद्धा, लज्जा, चिन्ता, अनुराग और त्याग की मूर्ति नारी दूसरों के सुखों के लिए स्वयं दु:ख रुपी हिण्डौलों पर झूलती रहती है। केवल इतना ही नही, अपितु ममतामयी मातृत्व निधि को लुटा-लुटा कर बदले में तिरस्कार एवं अवहेलना प्राप्त करके भी संतुष्ट रहती चित्र कथा सुनो सुनायें सत्य कथाएँ महासती को देखिए उनका जीवन जनक नन्दिनी के जन्म लेते ही भाई भामण्डल का अपहरण हुआ, विवाह के कुछ समय बाद ही पति एवं देवर लक्ष्मण के साथ वन गमन करना पड़ा. उसी अवधी में रावण द्वारा अपहरण, गर्भवती सीता का पति राम द्वारा परित्याग, सेनापति द्वारा एकाकी छोड़े जाने पर सन्तप्त हुई सीता विलाप तो अवश्य करने लगी, परन्तु इस धमानष्ठा न सकट का उस बला म भा अपन विवेक को जागृत रख पति के लिए उद्बोधन देने वाला संदेश भेजा, कि हे प्राणनाथ अपवाद के भय से जैसे मुझे त्याग दिया है वैसे ही कभी धर्म का परित्याग मत कर देना। अपवाद के मानसिक ताप से सन्तप्त सीता का भाई वज्रजंघ के यहाँ निवास, लव-कुश का जन्म, पिता पुत्र का युद्ध पुन: पिता पुत्र का मिलन तथा सीता के व्यक्तिव को कंचन सा निखारने वाला, अग्नि परीक्षा आदि घटनाओं से भरा सारा जीवन तपश्चर्या से युक्त है वह पठनीय, मननीय और अनुकरणीय हैं। जिसका नाम युगों-युगों तक स्मरण किया जावेगा। प्रकाशक - आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला एवं भा. अनेकान्त विद्वत परिषद निर्देशक - ब्रधर्मचंद शास्त्री कृति - जनक नन्दिनी सीता सम्पादक - ब्र रेखा जैन एम. ए. अष्टापद तीर्थ पुष्प नं. - 56 मूल्य - 25/- रुपये चित्रकार - बने सिंह राठौड़ प्राप्ति स्थान - 1. अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर 2. जैन मन्दिर गुलाब वाटिका © सर्वाधिकार सुरक्षित अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर विलासपुर चौक, दिल्ली-जयपुर N.H. 8, गुड़गाँव, हरियाणा फोन : 09466776611 09312837240 ब्रडॉ. रेखा जैन अष्टापद तीर्थ जैन मंदिर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेहराज महाराज जनक जिनकी महारानी विदेहा के जब गर्भ रहा तो एक देव के अभिलाषा हई कि क ....... जनकनन्दनीसीता अगर इनके बालक हुआ तो मैं ले जाऊं समय पाकर महारानी विदेहा के पुत्र और पुत्री युगल का जन्म रात्रि के समय चन्द्रगति नामके विद्याधर ने आभूषणो से हुआ। तो उस देव ने पुत्र का हरण कर लिया। बालक को प्रकाशमान बालक को देखा। वह हर्षित होकर बालक को आभूषण, कुण्डल पहनाये परण लब्धी नामक विद्याधर ने उसे उठा लाया। अपनी रानी पुष्पवती के गोद में रख दिया आकाश और पृथ्वी के बीच ठहराया और अपने धाम गया । और कहा तुम्हारे बालक हुआ है। 0000 0000000WC चित्रांकन - बनेसिंह मो. : 9460634278 जैन चित्रकथा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत बालक को पाकर रानी बहुत प्रसन्न हुई। दूसरे दिन राजा ने पुत्र जन्म का उत्सव मनाया। रत्न के कुण्डल की किरणों से मण्डित्त पुत्र बालक प्रभामण्डल का माता-पिता द्वारा राजसी ठाट बाट से पालन पोषण होने लगा। 9600 उधर मिथिलापुरी में राजा जनक की रानी विदेहा पुत्र का हरण जान विलाप करने लगी। अत्यन्त ऊंचे स्वर में रूदन किया। समस्त परिवार में शोक व्याप्त हो गया। 2 SOOCOPAL प्रभा मण्डल के गये का शोक भुलाने के लिए महामनोहर जानकी की बाललीला से सब बन्धु लोगों ने आनन्द उत्पन्न होने लगा। अत्यन्त हर्षित होकर महल की स्त्रियां उसे गोद में खिलाती। अपने शरीर की कान्ति से दशों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वृद्धि को प्राप्त हुई। तब महाराज जनक आये, रानी को धैर्य बंधाते बोलेहुए हे प्रिये, तुम शोक मत करो। तुम्हारा पुत्र जीवित है। किसी ने हरण किया है। तुम निश्चित रूप से उसे देखोगी। - कमल की कली से नेत्र, महा सुकंठ, प्रसन्न बदन मानो साक्षात, श्रीदेवी ही आई हैं। सर्वगुण सम्पन्न, समस्त लोक सुख दाता, अत्यन्त मनोहर सुन्दर लक्षण संयुक्त, भुमि के समान क्षमा की धारणहारी इसलिए जगत में सीता नाम से प्रसिद्ध हुई । ०५३ 00 जनक नन्दनी सीता Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमा से बढकर उज्जवल बदन, पल्लव समान कोमल आरक्त हथेलियां, महाश्याम, महासुन्दर, इन्द्रनील मणि समान है केशराशियां । मदभरी हंसनी की सी चाल, सुन्दर भी है और अनमोल श्री के पुष्प समान मुख की सुगन्ध । अति कोमल पुष्पमाला समान भुजाएं, केहरी के समान लचीली कमर आंगन के साथ क्रीडा कर रही है इनके रूप गुण देखकर राजा जनक विचार करने लगे जैसे रति कामदेव ही के योग्य है, पुत्र जो राम है, उन्हीं के योग्य हैं प्रकट होती है। बैतादय पर्वत के दक्षिण भाग और कैलाश पर्वत के उत्तर भाग में अनेक अंतर देश बसे हैं उनमें एक अर्धबरवर देश है जहां असंयमी महामूढ जन निर्दयी म्लेच्छ लोग भरे हुए हैं। वहां पर मयूर माल नाम के नगर में महाभयानक अंतरगत नामक म्लेच्छ राजा जो महापापी दुष्टों का नायक, महा निर्दयी बहुत बड़ी सेना सहित जनक का देश उजाड़ने के लिए आ धमका। CIC जैन चित्रकथा वैसे यह कन्या सर्वविज्ञान युक्त दशरथ के बड़े सूर्य की किरणों के योग से कमलिनी की शोभा Auto महापुण्याधिकारी जो श्री रामचन्द्र तिनका सुयश देखिये, जिस कारण से महाबुद्धिमान ने राम को अपनी कन्या देने का विचार किया। وی राजा जनक के अयोध्या अपने दूत भेजे। जिन्होने अयोध्या नरेश महाराज दशरथ को सारा वृतान्त बताया। म्लेच्छ राजा ने आक्रमण किया है। सब धरती को उजाड़ रहा है, अनेक आर्यदेश विध्वंश कर दिये। प्रजा नष्ट हो रही है। उसकी महाभयानक सेना का सामना हम नही कर पा रहे हैं। प्रजा की रक्षा करने से ही धर्म की रक्षा होगी। यह पृथ्वी आपकी है और यह राज्य भी आपका है, यहां की प्रतिपालना अब आप का कर्त्तव्य है। 3X20 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सब वृतान्त सुन कर महाराज दशरथ चलने को उद्यत हुए। श्री राम तब कमल नयन श्रीराम ने कहा - को बुलाकर राज्य देना चाहा। सब मंत्री आये, सब सेवक आये। यह हे तात् ऐसे शत्रु पर इतना परिश्रम क्यों? राज्याभिषेक का आडम्बर देख कर श्रीराम ने महाराज दशरथ जी से पूछा | वे पशु समान दुरात्मा जिनसे संभाषण करना हे प्रभो ! ये EV 57// हे भद्र ! तुम इस पृथ्वी की प्रति | ||उचित नहीं। उनके सन्मुख युद्ध की अभिलाषा सब क्या पालना करो। मैं प्रजा की रक्षा के||कर आप कहां पधारें? चूहों के उपद्रव पर हो रहा है ? लिए दुर्जय शत्रु सेना से लड़ने जाहस्ती कहां क्रोध करें और रूई को भस्म करने रहा है। के लिए अग्नि कहां परिश्रम करें? उनका सामना करने की मुझे आज्ञा दीजिए, यही उचित है। ( e VUUUDI यह सुनकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को हर्षित होकर छाती| ||श्रीराम के वचन सुन महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न से लगा लिया और कहा - एक चिन्गारी विशाल वन को। हुए, रोमान्चित हो कर सोचने लगे . हे पदम! कमल नयन भस्म कर सकती है। छोटी बड़ी || जो महापराक्रमी त्यागादि व्रत के धारण वाले क्षत्री जिनकी तुम सुकुमार बालक अवस्था से क्या फर्क पड़ता है। | यही रीति है- जो प्रजा की रक्षा के लिए अपने दुष्टों को कैसे जीत उगता ही बालसूर्य | प्राणों की बाजी लगा देते हैं। | पाओगे ? घोर अंधकार नष्ट कर देता है। वैसे ही हम बालक उन दुष्टों को मार भगायेंगे महाराज दशरथ से विदा होकर श्रीराम ने लक्ष्मण व सेना सहित शत्रु का मुकाबला करने के लिए प्रस्थान किया - जनक नन्दनी सीता Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब शास्त्र व शस्त्र विद्या में प्रवीण, सर्व लक्षण निपुण, सर्व प्रिय श्रीराम चतुरंग सेना के साथ अपने देदीप्यमान रथ पर दोनो भाई आरूढ हो राजा जनक की मदद के लिए चले। उधर से राजा जनक व कनक दोनो भाई सेना सहित आ डटे म्लेच्छों और सामन्तों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। महाराज जनक व कनक बरबर देश के म्लेच्छों की सेना के बीच घिर गये थे। उसी समय श्रीराम और लक्ष्मण पहुंच गये। आह! MARCपृथ्वी के रक्षक, धीर वीर श्रीराम शत्रु की विशाल सेना में प्रवेश कर गये - जैसे मदमस्त हाथी कदली वन को नष्ट करता है वैसे शत्रु सेना का विध्वंस करने लगे। राजा जनक व कनक दोनो भाईयों को बचा लिया - लक्ष्मण की बाणवर्षा के सामने सारी शत्रु सेना छिन्न-भिन्न हो गयी। असंख्य सैनिक धराशायी हो गये। जो बचे जान बचा कर भाग गये। तब उनका अधिपति आतरंग सामना करने आया। महाभयंकर युद्ध किया, उसने लक्ष्मण का रथ तोड़ दिया। तब पवन वेग से श्रीराम ने लक्ष्मण के समीप आकर दूसरे रथ पर लक्ष्मण को चढाया और स्वयं शत्रु सेना पर टूट पड़े। अग्नि जैसे वन को भस्म करती है वैसे ही शत्रु की अपार सेना को बाणो से नष्ट कर दिया। बची सेना हथियार डालकर भाग गयी। owयारण्Y ER LIA लक्ष्मण सहित श्रीराम ने राजा जनक को प्रसन्न कर विदा किया और स्वयं अपनी राजधानी को प्रस्थान किया। जैन चित्रकथा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे महापराक्रमी श्रीराम की कथा नारद कहते |शील संयुक्त हृदय नारद सीता को देखने |नारद भी पीछे महल में जाने लगा, ही रहते हैं। राम का यश सुनकर नारद जी के लिए उनके भवन आया। उस समय सीता द्वारपालों ने रोक दिया। शोरगुल आश्चर्य चकित हो गये। राजा जनक का|दर्पण में मख देख रही थी। नारद की जटा। सुनकर शस्त्रधारी प्रहरी आ गये। जानकी श्रीराम को देने का विचार सुन दर्पण में दिखाई दी। भय कर कम्पायमान हो नारद डर कर आकाश मार्ग से कर सोचने लगे- कैसी है जानकी ? महल के भीतर भाग गई। ho कैलाश पर्वत चला गया। समस्त पृथ्वी पर जिसकी महिमा प्रकट ANILI है। एक बार सीता को देखू तो सही वह कैसी शोभायमान है ? JITOR (dotthd वहां बैठ कर विचारने लगा - मैं सरल स्वभाव उपवन में भामण्डल अपने साथियों सहित खेलने आया हुआ था। |वे चित्र उसके समीप डाल कर खुद पास में कहीं छिप गया। श्रीराम के अनुराग के कारण उसे देखने के | भामण्डल को पता नहीं था कि यह मेरी बहिन का चित्र है। लिए गया। यम समान दुष्ट मनुष्य मुझे पकड़ने | चित्र देख कर मोहित हो गया। उसकी विक्षिप्त सी स्थिती हो को आये। अच्छा हुआ पकड़ा न गया। अब वह |गयी। तब नारद ने कुमारों को व्याकुल जान उन्हे दर्शन दिया। पापिनी मेरे आगे कहां बचेगी ? जहां-जहां जाए उसे कष्ट में हे देव ! कहो यह ये मिथिला के राजा जनक की पुत्री डालूं। किसकी कन्या का सीता है। हे कुमार, ये कन्या तुम्हारे रूप है? तुमने योग्य है। कहां देखा है ? SA LA ऐसा विचार कर शीघ्र ही वैताडय की दक्षिण श्रेणी बीच जो रथनुपुर नगर है वहां गया। महासुन्दर सीता का चित्र ले गया। ये कहकर नारद जी आकाश मार्ग से विहार कर गये। जनक नन्दनी सीता Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह अत्यन्त व्याकुल हो गया, खाना- तब एक चपलवेग नामके विद्याधर | महीने भर बाद एक दिन सेवक ने कहा वन का मतंग पीना, सोना, खेलना सब छोड़ कर को राजा जनक को लाने भेजा।। गज आया है, सो उपद्रव कर रहा है। तब उस मायावी सीता के चित्र को सामने रख कर,|| वह विचित्र घोड़े का रूप बनाकर घोड़े पर सवार हो राजा हाथी को रोकने चला सो सीता-सीता यूं रट लगाने लगा। जनकपुर गया राजा ने सोचा - | वह आकाश में राजा को ले उड़ा। पूरे नगर में यह सब जान कर माता-पिता बहुत हाहा कार मच गया। किसी का घोड़ा तुड़ाकर आ गया। चिंतित हुए। पिता ने कुमार को समझाया - हे पुत्र ! तुम स्थिर चित्त होवो, खाना पिना मत छोड़ो। जो कन्या तुम्हारे मन में बसी है, तुझे शीघ्र ही परणाऊंगा। उन्होंने उसे अश्वशाला में बंधवा दिया। वह अश्व रूपधारी विद्याधर पवन समान वेग से राजा किस सुनना चाहते हो तो सुनो- मेरी मिथिलापुरी जो धन धान्य को रथनपुर ले गया। वहां उसका भव्य स्वागत किया| लिए सम्पन्न है, जिस पर अर्धबर्बर देश के म्लेच्छ राजा ने गया। वहा कराजा चद्गात न जनक स सम्मान सहित उनको लूटने के लिए आक्रमण किया। मेरे और म्लेच्छों में महायुद्ध भेंट की कुशल क्षेम पूछ कर राजा चंद्रगति ने कहा- देनी हुआ। उस समय श्रीराम ने आकर मेरी और मेरे भाई की तुम्हारी पुत्री महाशुभलक्षण तब राजा जनक ने कहा सहायता की। उन देव दुर्जय म्लेच्छों को राम लक्ष्मण ने है, मैंने ऐसा सुना है। सो मार भगाया। राम लक्ष्मण ने मेरा ऐसा उपकार किया। तो तुमने जो कही सो सब मेरे पुत्र भामण्डल को देवो। प्रति उपकार स्वरूप मेरी पुत्री मैंने श्रीराम को देनी विचारीयोग्य है, परन्तु मेरी पुत्री. तुमसे सम्बन्ध पाकर मैं राजादशरथ के पुत्र श्रीराम अपना सौभाग्य समझूगा। को देनी करी है। Ace AAYION जैन चित्रकथा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहां वे रंक म्लेच्छ और कहां उनके राजा दशरथ के बड़े पुत्र श्रीराम जिन्हे पदम जीतने की बड़ाई? इसमें राम का कहिए। दीप्ति और कीर्ति जिनकी सूर्य और कौन सा पराक्रम है। जिनकी इतनी चन्द्रमा से बढ़कर है। जिनका छोटा भाई | बड़ाई कर रहे हो। तुम्हारी बात सुन लक्ष्मण जिनके धनुष की टंकार सुनकर शत्रु| हसी आती है, जैसे बालक को थर-थर कांपने लगते हैं। तम विद्याधरों को विषफल भी अमृत लगता है। दरिद्र उनसे अधिक बताते हो, कौवे भी आकाश में| को बेर भी अच्छे लगते हैं। कौवों उड़ते हैं, उनमें क्या गुण है? भूमिगोचरियों | को सूखे पेड़ भी अच्छे लगते हैं। में भगवान तीर्थंकर उपजे हैं, उन्हें इन्द्रादिक यह स्वभाव ही है। अब तुम उनका देव भूमि पर मस्तक टेक कर नमस्कार करते खोटा सम्बंध तजकर विद्याधरों के हैं। विद्याधरों की क्या बात है? राजा चंद्रगति से सम्बंध करो। हे भूमिगोचरियों के नाथ। तुम राम लक्ष्मण का इतना प्रभाव बता रहे हो। बेकार बड़ी-बड़ी| बातें कर रहे हो। तुम्हे हमारे बल पराक्रम का पता नहीं है, इसलिए हम कह रहे हैं। सुनो- एक वजावर्त, दूसरा सागरावर्त ये दो धनुष, वे दोनो भाई चढावें तो हम उनकी शक्ति मान लें अन्यथा हम बल पूर्वक कन्या को यहां ले आवेंगे। तुम देखते रहोगे। यह बात प्रमाण है। CHAKKE OXI तब राजा जनक ने मिथिलापुरी आकर आयुधशाला में वे धनुष|परवश होकर मैंने यह बात प्रमाण करदी। वो दोनों स्थापित किये- राजा उदास रहने लगे, रानी के पूछने पर बताया- धनुष यहां लाये हैं, बाहर आयुधशाला में रखे हैं। वह मायावी घोड़ा मुझे विजया गिरी में ले गया। वहां रथनुपुर के ये धनुष इन्द्र से भी न चढाये जाये। कदाचित राजा चंद्रगति से मेरा मिलना हुआ। उन्होने कहा तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्र श्रीराम धनुष को नहीं चढापायें तो विद्याधर मेरी को देवो। मैंने कहा मैं तो दशरथ पुत्र श्रीराम को देनी कर चुका हूँ।। पुत्री को बलपूर्वक ले जावेंगे। तब वाने कही जो रामचंद्र वजावर्त धनुष को चढावे तो तुम्हारी पुत्रि परणे अन्यथा मेरा पुत्र परणेगा। जनक नन्दनी सीता Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा समय स्वयंवर मंडप रचा गया सकल राजकुमारों को पत्र भिजवाये गये, अयोध्या नगरी को दूत भेजा। महाराज दशरथ सहित चारों भाई आये- सीता परम सुन्दरी सात सौ कन्याओं के बीच महल के ऊपर विराजमान है। एक विद्वान राज कर्मचारी मंडप में बिराजे राजकुमारों का ऊंचे स्वर में परिचय सुना रहा था। हे राजपुत्री ! यह कमल लोचन श्रीरामचंद्र राजा दशरथ के पुत्र हैं और यह इनका छोटा भाई लक्ष्मीवान लक्ष्मण है। महातेजस्वी हैं। www एक-एक कर सभी राजकुमार धनुष के निकट गये। धनुष से चारों ओर अग्नि की ज्वाला बिजली के समान निकल रही थी। मायावी भयंकर सर्प फूंकार रहे थे। सब राजकुमार धनुष को देखकर कांपने लगे। कई एक तो कानों पर हाथ धर कर भागे। कई एक भयभीत से दूर ही खड़े रहे। आंखें चौंधिया रही थी जैन चित्रकथा तब श्रीराम धनुष चढाने के लिए आगे बढे महामाते हाथी की तरह मनोहर गति से चलते धनुष के निकट गये। सो धनुष राम के प्रभाव से ज्वाला रहित हो गया। तब श्रीरामचंद्र ने सहजता से धनुष उठाकर चढाया। खेंचते ही महाप्रचण्ड शब्द हुआ। धरती धूजने लगी। सीता ने वरमाला राम के गले में डाली। दूसरा धनुष सागरावर्त लक्ष्मण ने उठाकर चढाया त्याँही पुष्पवर्षा होने लगी। चारों तरफ जय-जयकार होने लगी। त्रिलोक सुन्दरी श्रीसीता व श्रीराम विवाह हो गया व अयोध्या लौट आये समस्त राजकुमारों का परिचय सुनाने के बाद कहा- ये समस्त महागुणवान राजकुमार यहां पधारे हैं। इनमें से जो वज्रावर्त धनुष की प्रत्यन्चा चढावे उसे ही तुम वरण करो oo pes Ro उधर भामण्डल लज्जा और विषाद से भर गया। ईर्ष्यावश क्रोधित होकर विमान चढकर आकाश मार्ग से निकला। पृथ्वी पर जब उसने अपना पूर्वभव का स्थान विदग्धपुर देखा तो उसे जातिस्मरण हो आया हो आया- सोचा... मैं और सीता एक ही माता के उदर से पैदा हुए। अब मेरे अशुभ कर्म नष्ट हुए तब पता चला। 9 कु Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह अयोध्या पहुंचा वहां सीता अपने भाई भामण्डल को देख हर्षित होकर मिली। हे भाई मैंने तुम्हे प्रथम बार ही देखा है। 06. श्रीराम लक्ष्मण भी भामण्डल से मिले । समाचार पाकर राजा जनक भी सपरिवार आगये। सर्वत्र आनन्द उत्सव मनाया गया। कुछ समय बाद महाराज दशरथ को सर्वभूतहित मुनिराज के उपदेश से वैराग्य उत्पन्न हो गया, उन्होंने श्रीराम को योग्य समझ कर राज्यतिलक करना चाहा परन्तु रानी कैकई के वचन से भरत को राज्य दिया। श्रीराम पिता की आज्ञा लेकर वन को चले तब लक्ष्मण व सीता ने श्रीराम के साथ वन में प्रस्थान किया हे प्रभो! मुझ पर कृपा करो। ये राज्य आप करो। मैं आप के सिर पर छत्र लगाऊंगा। शत्रुघ्न चंवर ढारेगा और लक्ष्मण मंत्री पद धारेगा। मेरी माता पश्चाताप रूपी अग्नि जल रही है। आपकी माता और लक्ष्मण की माता महाशोक में डूबी हुई हैं। 노산단 ट QUAN भरत को हृदय से लगाकर, बहुत दिलासा देकर बड़ी मुश्किल से अयोध्या भेजा 10 माता की आज्ञा लेकर भरत राम-सीता व लक्ष्मण को वन से वापस लाने वन में गये। श्रीराम के चरणों में लिपट कर निवेदन किया। हे भाई! तुम चिन्ता मत करो पिता की आज्ञा पालन तुम्हारा हमारा सबका परम कर्त्तव्य है। 놀이 it 33 जनक नन्दनी सीता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदन्तर श्रीरामचंद्र, लक्ष्मण, सीता एक तपस्वी के आश्रम में|| चित्रकूट पर्वत के पास कुटिया बनाकर रहने लगे। नाना गये- उन तपस्वियों ने नाना प्रकार के मधुर फल सुगन्धित पुष्प | प्रकार की कथा करते हास्य विनोद करते- जैसे नन्दन व मीठा जल आदर सहित भेण्ट किये। रात्रि विश्राम कर प्रभात || वन में देव भ्रमण करते हैं वैसे ही अतिरमणीक लीला होते ही उठकर आगे चलने लगे- तब अनेक तपस्वी उनके पूर्वक वन विहार करते रहे। साथ चलने लगे। हम आगे जो निर्जन वन बता रहे हो, वहीं जावेंगे, आप लोग वापस लौट जावो। इसके बाद चारमास में मालव देश में आये, जहां ये इतना इस उज्जयनी नगरी के राजा सिंहोदरा हैं। उसका सेवक कोई बस्ती नहीं दिखाई दी तो एक वट वृक्ष की सुन्दर प्रदेश वजकर्ण जिसने मुनिराज उपदेश से प्रभावित हो प्रण कर छाया मे विश्राम करने लगे तभी एक वृद्ध पथिक निर्जन कैसे लिया कि मैं देवगुरू शास्त्र को छोड़कर किसी को नमस्कार उधर से निकला। श्रीराम ने उससे पूछा- हो रहा है? नहीं करूंगा। इसका पता लगने पर सिंहोदरा ने उसके नगर 40 व व प्रदेश को उजाड दिया है। SECate Kav GUL Rects 442-2 जैन चित्रकथा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब श्रीराम नगर के निकट पहुंच कर एक चन्द्रप्रभु चैत्यालय में ठहरे व लक्ष्मण को तब श्रीराम ने मेघगर्जनी की तरह गंभीर नगरी में राजा सिंहोदर के पास भेजा लक्ष्मण सिंहोदर को डरा धमका कर श्रीराम सीता वाणी में कहा। अहो सिंदोहरा के पास चैत्यालय में ले आया। तब सिंहोदर हाथ जोड़कर कांपता हुआ श्रीराम सीता के | तुम्हे जो वजकर्ण कहे वैसा करो। पैरों में पड़ा और बोला- हे देव! आप महाकान्ति के धारी, परम तेजस्वी हो, सुमेरू जैसे हे देवी! हे शोभने! आप अचल पुरूषोत्तम हो, मैं आपका आज्ञाकारी हूँ। ये राज्य आपका स्त्री शिरोमणी हो, हमारे | है। आप चाहो जैसा करो। मैं आप के चरणों की नित्य सेवा, पर करूणा करो, मेरे पति करूंगा। के लिए आपसे भिक्षा मांगती हूँ। जो आज्ञा! इस तरह वज्रकर्ण को सिंहोदर से निर्भय किया और मित्रता की। तदन्तर ये दोनो वीर महाधीर सीता सहित नाना प्रकार अनेक देशों को देखते हुए वंशस्थल नगर कुन्थलगिरी आये। नगर के निकट एक के वृक्षों, भान्ति-भान्ति के पुष्पों से युक्त वन में रमते-रमते वंशधर नामका पर्वत देखा- मानों पृथ्वी को भेद कर निकला हो। जहां बांसों आए, समस्त देवोपुनीत शरीरधारी। पुष्पों के कर्णाभूषण | के बड़े समूह जिनसे दिन में भी सूर्य नहीं दिखता था। लोग नगर को छोड़ कर जा धारण किये। कहीं छोटे वृक्ष में लगी बेल का हिंडोला बना | रहे थे। पहाड़ों के शिखर पर ऐसी ध्वनि हो रही थी जो अब तक नहीं सुनी। दशों कर दोनों भाई झोटा देय-देय कर जानकी को झलाते हैं. दिशाए गूजने लगती है। राम, लक्ष्मण, सीता वहां पहाड़ पर गये। शिखर पर और आनन्द की कथा कहकर विनोद उपजाते हैं। देखते हैं, देशभूषण और कुलभूषण दो मुनि कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। राम, लक्ष्मण, व सीता ने उन्हें नमस्कार किया- महाभक्तियुक्त दोनों भाई मुनियों के समीप बैठे। उसी समय असुर के आने से महाभयानक शब्द हुआ। मायावी सर्प बिच्छु दोनों मुनियों पर झपट पड़े। जनक नन्दनी सीता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों भाइयों ने निकट जाय सांप बिच्छु मुनियों के शरीर से हटाये- चरणारविंद की पूजी की भक्ति जैसे ही रात्रि हुई असुर भी मायाकारी जन मनियों के पैर धोकर मनोहर गंध से लिप्त किये। महारोग भयंकर शब्द करते हुए हाथों जो वन को सुगन्धित कर रहे थे एवं लक्ष्मण ने तोड़कर दिये ऐसे निकटवर्ती लताओं के में त्रिशूल लिए उपद्रव करने लगे-राम, फूलों से उनकी पूजा की और योगीश्वरों की भक्ति वंदना करने लगे। श्रीराम वीणा लेकर लक्ष्मण ने धनुष बाण से उन सबको बजाने लगे और दोनों भाई मधुर स्वर में गान करने लगे। भक्ति की प्रेरित सीता ऐसा |मार भगाया- मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ। नृत्य करने लगी जैसा सुमेरू पर शची नृत्य करे। तदन्तर श्रीराम, सीता, लक्ष्मण दण्डक वन में नर्मदा नदी के तट तब श्रीराम ने सीता सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर महाभक्ति युक्त पर पहुंचे। एक रमणीक वृक्ष की छाया में विश्राम किया। बहुत ही श्रद्धा सहित मुनियों को आहार दिया। आरणी भैंसों व गायों का दूध, मीठे आरोग्य युक्त पक्के फलों व फूलों के आहार बनाये, सीता ने वहां छुहारे, गिरी, दाख, नाना, प्रकार के वन के धान्य, मधुर, घी-मिष्ठान इत्यादि मनोहर वस्तु से विधि पूर्वक मुनियों को पारण कराया। जब रसोई के उपकरण, माटी के बासण बांसों के नाना प्रकार तत्काल बनाये। राम ने सीता सहित भक्ति कर आहार दिया तब पंचाश्चर्य हुए। उसी महास्वादिष्ट सुन्दर, सुगन्ध आहार, वन के धान सीता ने तैयार किये। समय एक गृध पक्षी वृक्ष पर बैठा उन्हे चाव से देख रहा था। भोजन के समय दोऊ वीर मुनि सुगुप्ति व गुप्ति नामके आहार के FLOTHO लिए आये। सो दूर से सीता ने देखे। अत्यंत हर्षित होकर पति से कहने लगी - हे प्रिय! हे पंडिते! सुन्दर मूर्ति! वे साधु कहां | हे नाथ! हे नरश्रेष्ठ! हैं? धन्य है भाग्य तुमने निग्रन्थ युगल देखे। देखिये, दिगम्बर कल्याण | जिनके दर्शन से जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो रूप चारणयुगल आये हैं। जाते हैं- भक्तों का परम कल्याण होता है। PLRS जैन चित्रकथा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसे पूर्वभव स्मरण हो आया पेड़ से नीचे आकर मुनिराजों का चरणोंदक पीने लगा सीता आश्चर्य चकित उसे देखने लगी। महाविरूप पक्षी मुनिराज के चरणों में पहुंचते ही स्वर्ण व रत्न समान छविधारी बन गया और महान शान्ति को प्राप्त हुआ। ONTE 14 श्रीराम के पूछने पर मुनिराज ने दण्डक वन व गिद्ध की पूर्व कथा बतायी पक्षी को उपदेश दिया। हे भव्य ! तुम अब गम मत करो। जिस समय जैसी होनी होती है सो हो कर रहती है। होनहार को कोई नही टाल सकता। देख कहाँ यह वन और कहां सीता सहित श्रीराम का आगमन और कहां हमारा वनचर्या का अवग्रह जो वन में श्रावक के आहार मिलेगा तो लेवेंगे और कहां तुम्हारा हमको देख प्रति बोध होना? तब पक्षी ने बारम्बार मुनि के निकट नमस्कार राजा जनक की पुत्री ने विश्वास दिलाया राम लक्ष्मण के समीप ये पक्षी श्रावक के इसे ही में इसकी रक्षा व पालना करूंगी। कर श्रावक के व्रत धारण किये। तब सीता ने जैसे गरूड़ की माता गरूड़ को पालती है व्रत धारण कर महास्वाद संयुक्त भोजन उसे उत्तम श्रावक जान प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। इस गहन वन में अनेक क्रूर जीव है। इस सम्यग्दृष्टि पक्षी की तुम्हें सदा काल रक्षा करनी है। भवदुःख से भयभीत पक्षी को मुनिराज ने कहाहे भद्रे ! तुम निर्भय होकर श्रावक के व्रत लेवो, शान्त भाव धारण करो, किसी प्राणी को पीड़ा मत दो, अहिंसा व्रत धारो, मृषावाणी तज दो, सत्यव्रत धारो, पर वस्तु का ग्रहण तज दो, ब्रह्मचर्य का पालन करो, संतोष धारो, रात्रि भोजन व अभक्ष आहार का त्याग करो। त्रिकाल संध्या में जिनेन्द्र का ध्यान करो। GRAF anan www HAALA www करने लगा। स्वर्ण समान पंखोंयुक्त पक्षी का नाम सीता ने जटायु रखा। सदा उसकी रक्षा करते थे। जनक की पुत्री सीता ताल बजाते और राम लक्ष्मण दोऊ भाई ताल के अनुसार तान लावे तब यह जटायु पक्षी 5. रविसमान कान्तिमय हर्षित होकर ताल के अनुसार नृत्य करें। श्रीराम लक्ष्मण पक्षी को जिन धर्मीजान अत्यन्त धर्मानुराग पुरित हुए की स्तुति कर नमस्कार किया दोनो मुनि विहार कर गये। जनक नन्दनी सीता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथान्तर पात्रदान के प्रभाव से सीता राम लक्ष्मण इस लोक में रत्न हेमादि सम्पदा युक्त हए। एक भव्य सुवर्णमयी रत्न जड़ित, ताके मनोहर स्तम्भ जिन पर मोतियों की मालाएँ लूम्ब रही हैं, सुन्दर झालरें, सुगन्धित चन्दन कपूर से बने जिसमें सेज, आसन वादित्र वस्त्र, सर्व सुगन्ध युक्त ऐसा एक विमान समान रथ बनाया। जिसके चार हाथी जुते हुए, उसमें राम, सीता, लक्ष्मण, जटायु सहित रमणीक वन में भ्रमण करते हैं। किसी का भय नहीं, कोई घात नहीं, कहीं एक दिन, कहीं पन्द्रह दिन, कहीं एक मास मनवांछित क्रीड़ा करे, यहां निवास करें, वहां निवास करें। महा निर्मल निभरनों को निरखते, स्वेच्छानुसार भ्रमण करते, ये धीर वीर सिंह समान निर्भय दंडक वन मे मध्य पहुंच गये। जहां से नदियां निकले। जिनका मोती के हार समान उज्जवल जल, अनेक वृक्ष शोभित है, स्वयमेव उपजे नाना प्रकार के धान्य, महारस के भरे सांठे, नाना प्रकार की बेलें, नाना प्रकार के फल फूल मानों दूसरा नन्दन वन ही है। शीतल मन्द सुगन्ध पवन ऐसा लगे वह वन राम, सीता के आने से हर्ष कर नृत्य कर रहा है। Ramay लामाशाणाणारा का ALAMISCE नदी के तट पर मनोहर स्थल देख हस्तिरथ उतर कर लक्ष्मण||जल क्रीड़ा से निवृत हो पास में लता मण्डल में बैठ कर मधुर फल नाना स्वाद के सुन्दर मीठे फल लाये। फिर राम, सीता सहित ||खाये- फिर नाना प्रकार की सुन्दर कथाएं सुनाने लगे- जटायु के जल क्राड़ा म मग्न हा गय। जसा जल क्राड़ा इन्द्र नागन्द्र मस्तक पर हाथ रख सीता व लक्ष्मण आनन्द से कथा श्रवण करने चक्रवर्ती करें तैसी राम लक्ष्मण ने की। मानो वह नदी समरूप| लगे। राम लक्ष्मण से कहने लगे। - हे भ्रात! यह नाना प्रकार के कामदेव को देख रति समान मनोहर रूप धारी हुई। सीता गान करने लगी गाने के अनुसार रामचन्द्र जी ताल देने लगे। वृक्ष स्वादु फल संयुक्त, नदी निर्मल जल भरी, ये दण्डक नामका गिरी अनेक रत्न से पूर्ण है, इसलिए इस गिरि के निकट नगर बसावें यहां निवास हर्ष का कारण है। हे भाई! तुम दोनों माताओं को लाने को जावो। वे अत्यन्त दुखी है, सो शीघ्र ही ले आओ। जो आपकी Funकामसकरार आज्ञा होगी वही होगा। जैन चित्रकथा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब तो वर्षा ऋतु आगई, यह अत्यन्त भयंकर है। समुद्र उफनते हैं, मेघ घटाएँ घहराती हैं बिजली चमकती है निरन्तर बादल बरस रहे हैं। नदी वेग से बह रही है। धरती कीचड़ से भरी हुई है। WALD auu W 16 शरद ऋतु का आगमन हुआ एक दिन बड़े भाई की आज्ञा मांग सिंह समान पराक्रमी वन देखने अकेला निकला। लक्ष्मण को बहुत देर लगी जान कर श्रीराम सीता से कहते हैं। लक्ष्मण कहां गया? हे नाथ! वो लक्ष्मण आगया, पूरे अंग में केसर लगी है भद्र जटायु तुम उड़कर देखो है, सुन्दर मालाऐं पहन रखी हैं, एक अद्भुत खड़ग कि लक्ष्मण आ रहा है क्या? लिए आ रहा है। आप इधर देखिए। 1 Win utp very? Muzamm ura इस तरह सुख पूर्वक वर्षाकाल पूरा किया। तब श्रीराम ने आश्चर्य पूर्वक हर्षित होकर लक्ष्मण को छाती से लगा लिया- सकल वृतान्त पूछा तब लक्ष्मण ने सारी बात बतायी। भया सहित सुख से विराजे उधर चन्द्रनखा बिलबिलाती क्रोधित हो अपने पुत्र को मारने वाले को ढूंढती आ धमकी दो महारूपवान श्रीराम, लक्ष्मण को देखकर उसका प्रबल क्रोध तत्काल जाता रहा और राग उपजा इन दोनों में मुझे NOW पसंद करे उसे ही सेवन करूं में। यह विचार, कामातुर होकर, आसक्ति वश पुन्नागवृक्ष के नीचे बैठी रूदन करने लगी। अत्यन्त दीनतापूर्ण बातें करने लगी। उसे देख दयावश श्रीसीता उसके निकट गयी, धीरज बंधाकर श्रीराम के पास लायी तब उससे पूछने लगे। हे पुरुषोत्तम! मेरी माता बचपन तुम कौन हो? इस में मर गयी। उसके शोक में पिता भी भयानक वन में अकेली परलोक गामी हो गया। अनाथ होकर दण्डक क्यों घूम रही हो? वन में आई बहुत दिन से इस वन में भटक रही हूँ। अब मेरे प्राण ना छूटे उससे पहले कृपा कर मुझे पसन्द कर लो। .30 ww जनक नन्दनी सीता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह उसके लज्जा रहित वचन सुनकर दोनो भाई परस्पर अवलोकन कर चुपचाप खड़े रहे। तब वह इनका चित्त निष्काम जान निश्वास नाख कर कहने लगी। जो तेरी इच्छा हो सो करो। वह क्रोधित होकर अपने पति आकाश मार्ग से चौदह हजार राजाओं को साथ ले के पास गयी- खरदूषण, दैत्यजाति दण्डक वन में आये, उनकी सेना के भयंकर शब्द विद्याधर अधिपति ने महाक्रोध कर सुन सीता डरने लगी, राम के पास चिपक गयी। तत्काल रावण को समाचार भेजा- तब श्रीराम ने कहा- प्रिय भय मत करो। जिनके हाथ सूर्य हास खड़ग आया वे सामान्य पुरुष नहीं है। जो विचार करना हो सो करो। जाऊं? HARI वह चली गयी- पीछे राम, लक्ष्मण सीता को बड़ा आश्चर्य हुआ। पण राक्षस सेना को देख श्रीराम ने धनुष | उसी समय पुष्पक विमान में बैठ कर रावण रावण ने अवलोकनी विद्या से सारा उठाया तब लक्ष्मण ने कहा आया। सम्बूक को मारने वाले पुरूष पर वृतान्त जानकर कपट पूर्वक सिंहनाद मेरे रहते आपको इतना परिश्रम क्रोधित हो रहा था। मार्ग में राम के समीप किया- उसने बार-बार राम, राम ... करना ठीक नहीं। आप राजपुत्री की महासती सीता को बैठे देख कर मोहित ये आवाज निकाली। रक्षा करें। मैं शत्रु का सामना करूंगा| हो गया। यह अद्भुत रूप, अनुपम भाई पर माह पड़ भाई पर भीड़ पड़ी जान श्रीराम ने कदाचित भीड़ पड़ेगी तो मैं सिंहनाद | महासुन्दर नवयौवन- पहले इसे ही हर जानकी को एक लता कुञ्ज में छिपा करूंगा। तब आप मेरी सहायता करना।। कर घर ले जाऊंगा। छिपकर ले जाने में|कर- जटायु को पास बिठाकर धनुष PROUP किसी को पता नहीं चलेगा। बाण लेकर लक्ष्मण की सहायता के लिए चले गये। ऐसा कह बख्तर पहर शस्त्र धार लक्ष्मण खरदूषण से युद्ध करने चला। जैन चित्रकथा 1 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय रावण सीता को उठाने को आया सीता को रावण जनक सुता को पुष्पक विमान में धर अपने स्थान ले चला। उठाय पुष्पविमान पर धरा तभी जयायु पक्षी क्रोधित | सीता बुरी तरह विलाप करने लगी- सीता को रूदन करती देख रावण हो रावण पर टूट पड़ा। रावण ने महाक्रोध पूर्वक हाथ| जो यह निरन्तर रो रही है, विरह से व्याकुल है। की चपेट से मारा। जटायु मुर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। अपने भरतार के गुण गा रही है, अन्य पुरुष के संयोग की अभिलाषा नहीं है। सो स्वी अवध्य है, इसलिए मैं मार नही सकुं। मेरा साधुओं के निकट व्रत लिया हुआ है, जो स्त्री मुझे नहीं चाहे उसका सेवन मैं नही कर सकता। मुझे व्रत दृढ रखना है। इसे कोई उपाय कर प्रसन्न करूं । DO 23 उधर श्रीराम ने बाण वर्षा करते हुए रणक्षेत्र में प्रवेश किया- तब लक्ष्मण | पास में घायल जटायु को देखकर उसे णमोकार मंत्र के बताने पर छलका पता चला खरदूषण को सेना सहित मारकर जब सुनाया। वह श्रावक व्रत धारी श्रीराम के सान्निध्य से राम लक्ष्मण वापस आये- सीता को नहीं देखकर राम विलाप करने लगे। मरकर देव हुआ। जनक नन्दनी सीता Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तदन्तर रावण सीता को लेकर विमान के शिखर पर गया शोक विह्वल सीता का मुख कमल कुमला गया देख रावण दीन वचन कहने लगा। हे देवी! मैं कामवाण से पीड़ित हूं, हे सुन्दरी। यह तेरा मुखकमल सर्वथा कोप संयुक्त है तो और भी मनोहर लगता है। प्रसन्न हो जावो, एक बार मेरी तरफ देखलो विमान शिखर पर चारों तरफ देखो, सूर्य से भी ऊपर आकाश में आया हूँ, मेरू कुलाचल और समुद्र सहित पृथ्वी देखो मानो खिलौना है। खरदूषण की मदद को गये हस्त प्रहस्तादि उसके मरने के बाद उदास होकर लंका आये। रावण ने किसी की ओर नहीं देखा जानकी को ही नाना वचन कहकर प्रसन्न करने में लगा रहा सो कहां प्रसन्न होने वाली थी, नागके माथे की मणी को कोई प्राप्त नही कर सकता। वैसे ही सीता को कोई मोह में नहीं डाल सकता। रावण देवारण्य उपवन में कल्पवृक्ष की छाया में सीता को बिठा कर अपने भवन गया। जब तक राम लक्ष्मण की कुशलक्षेम की बात नहीं सुनू तब तक खान-पान का मेरे त्याग है। 1 हे अधम । दुर रह, मेरे अंग का स्पर्श मत कर, ऐसे निध्य वचन कभी मत बोल रे पापी अल्पायु ! कुगतिगामी अपयशी तेरा यह दुराचार तुझे ही भयकारी है परदारा की अभिलाषा करता तूं महादुःख पावेगा। कर्महीण तु बहुत पछतावेगा । जैन चित्रकथा उधर रावण ने मन्दोदरी को सिखाकर सीता को मनाने भेजा वह रावण की अठारह हजार रानियों को साथ लेकर देवारण्य उद्यान में सीता के पास जाकर बोली। हे सुन्दरी! हर्ष के स्थान पर विषाद क्यों कर रही हो? जिस स्त्री के रावण पति सोही जगत में धन्य है सब विद्याधरों का अधिपति, सुरपति दिजेता, तीनो लोकों मैं सबसे सुन्दर, उसे क्यो नहीं चाहती हो। निर्जन बन के वासी, निर्धन, शक्तिहीन उनके लिए क्यों दुःख कर रही हो? सर्वलोकों में श्रेष्ठ, उसे अंगीकार करके क्यों नहीं सुखी होवो । 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा कहा जो न करोगी तो जो कुछ तेरा होनहार तब अश्रुपूर्ण नेत्रों से गद् गद् वाणी में सीता ने कहा - है सो होगा। रावण बलवान है, कदाचित उसकी र हे नारी ! यह वचन तुमने सब ही विरूद्ध करे। तुम पतिव्रता कहलाती हो, बात नहीं मानेगी तो उसके कोप से तुम्हारा पतिव्रताओं के मुख से ऐसे वचन कैसे निकलते हैं। यह शरीर मेरा छिद भला नहीं होगा। राम लक्ष्मण तुम्हारे सहाई| जाय, भिद जाय, हत जाय, परन्तु अन्य पुरूष को नही चाहुं। रूप चाहे सनतकुमार हैं तो रावण के कोप किये उनका भी जीतना |समान हो या इन्द्र समान हो मेरे क्या काम का। मैं सर्वथा अन्य पुरुष को नही चाहूं। नहीं है, इसलिए शीघ्र ही उसे अंगीकार कर परम तुम सब अठारह हजार रानियां इकट्ठी होकर आई हो, तुम्हारा कहना मैं नहीं | ऐश्वर्य को पाकर देवदुर्लभ सुख भोग। मानूंगी। तुम्हारी इच्छा हो जैसा करो। उसी समय मदन के आताप पीड़ित रावण जैसे तृषातुर हाथी गंगा के तीर आवे वैसे सीता के समीप आकर आदरपूर्वक मधुर वाणी में कहने लगाहे देवी! तूं भय मत कर मैं तेरा भक्त ऐसा कह स्पर्श करने लगा- तब हूं। हे सुन्दरी। चित्त लगाकर एक सीता क्रोधित होकर कहने लगीविनती सुन। मैं तीन लोक में किस। किम किस पापी! परे जा, मेरा अंग वस्तु रहित हूं जो तूं मुझे नही मत स्पर्श कर। चाहती है। क्रोध और कुशील पुरुष का वैभव मल समान है अभिमान और जो शीलवंत है उनके दरिद्र ही छोड़ प्रसन्न आभूषण है, जो उत्तम वंश में जन्मे हो, शची हैं उनके शील की हानि से दोनों लोक इन्द्राणी बिगड़ते हैं, इसलिए मेरे तो मरण ही समान दिव्य शरण हो तू पर स्त्री की अभिलाषा भोगों की रखता है सो तेरा जीना वृथा है। स्वामिनी बनों। 20 जनक नन्दनी सीता Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जब सीता ने तिरस्कार किया तब रावन ने क्रोध कर माया प्रकट की- मद झरती माया मई हाथियों की घटा आई। बहुत से अनि के गुब्बारे बरसने लगे। लबलबाद करते जीभ के सर्प आये। महाकूर वानर उछलकूद करने लगे। अग्नि की ज्वाला समान जीम लपलपाते अजगर आये। प्रभात हुआ- विभीषण आदि रावण के भाई खरदूषण के शोक पर रावण के पास आये। सो नीचा मुख किये। आंसू डारते भूमिपर बैठे। उस समय पट के अंतर शोक की भरी सीता के रूदन के शब्द विभीषण ने सुने वह कहने लगा कौन स्त्री रूदन कर रही है? अपने स्वामी से बिछुड़ी है। याका शोकसंयुक्त शब्द दुःख को प्रकट दिखा रहे हैं। जैन चित्रकथा WH फिर अंधकार समान काले ऊंचे व्यंतर हुंकार करते आये। रावण ने उपसर्ग किये तथापि सीता नहीं डरी। ये विभीषण के शब्द सुन सीता अधिक रोने लगी, सज्जन को देख शोक बढता ही है। मैं राजा जनक की पुत्री, भामण्डल की बहिन राम की राणी, दशरथ की पुत्रवधु, लक्ष्मण मेरा देवर, सो खरदूषण से लड़ने गया। उसके पीछे मेरा स्वामी भाई की मदद के लिए गया, वन में अकेली देख या दुष्टचित्त ने हरण किया। मेरा पति मेरे बिना प्राण तजेगा इसलिए हे भाई मुझे मेरे पति के पास शीघ्र भेज दो। 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता के वचन सून विभीषण रावण से | परदारा की अभिलाषा अति भयंकर, महानिध्य, विभीषण के वचन सुन रावण बोलाविनय पूर्वक कहने लगा-हे देव! यह परनारी| दोऊ लोक नाश करणहार, लज्जाजनक, ऐसा पृथ्वी पर जो सुन्दर वस्तु है, अग्नि की ज्वाला है, विषैले सर्प के फण, अनीतिकार्य कभी भी नहीं करना चाहिए। सबका मैं स्वामकी हूँ। सब समान भयंकर है, आप किस लिए लाए हो? आप सब कुछ जानते हुए सब मर्यादा आप मेरी वस्तुएँ हैं। पराई वस्तु अब शीघ्र ही वापस भेज दो। हे स्वामी! मैं बाल ही से रहती है। आप विद्याधरों के महेश्वर,, कहां से आई? बुद्धि हूँ, परन्तु मेरी विनती सुनो- आपकी कीर्ति | ये जलता अंगार किसलिए हृदय से लगा रहे सर्व दिशाओं में व्याप्त हो रही है। ऐसा न हो जो| हो। जो पाप बुद्धि परदारा सेवन करते हैं। अपयश रूप अग्नि से यह कीर्तिलता भस्म हो जाये।।। I वे नरक में जाते हैं। रावण ऐसा कह कर और बात करने लगा। उधर श्रीराम लक्ष्मण सीता को खोजते हुए किस्किंधापुर आये- वहां सुग्रीव से| अतिदया उपजी प्रमद उद्यान जहां सीता विराजे | मित्रता हुई। श्री हनुमान को सीता की खोज के लिए भेजा। हनुमान जी लंका में वहां हनुमान गये- दूर ही से सीता को देखापहुंचकर पहले विभीषण से मिले और उन्हें रावण को समझाने के लिए कहा-| हनुमान मन में विचारने लगे..... ये काम तुम्हारे योग्य नहीं है, चारों तरफ तुम्हारी अपकीर्ति होगी, तब विभीषण धन्य रूय या माता का, जीते हैं सर्व लोक जिसने ने कहा- मैंने बहुत बार भाई को समझाया, परन्तु वह मानता नही है। जिस मानों ये कमल से निकली लक्ष्मी ही विराज रही हैं। दिन से सीता ले आया। उस दिन से मुझसे बात भी नहीं करता है तथापि तुम्हारे दु:ख के सागर में डुब रही हैं, या समान और कहने से मैं बहुत दबाय कर कहूंगा, परन्तु यह हठ उससे छूटना कठिन है और कोई नारी नही है। मैं जैसे भी हो इसे श्रीराम से आज ग्यारहवां दिन है। सीता निराहार है, पानी भी नही पीया है। | मिलाऊं। इसके और श्रीराम के काज अपना तन दूं, ANCHAL इनका और श्रीराम का विरह नहीं देखू । जनक नन्दनी सीता Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह चिन्तवन कर अपना रूप फेर मंद पांव धरता हनुमान | |सो समीप बैठी वो नारी इसकी प्रसन्नता के समाचार रावण, आगे जाय श्रीरामकी मुद्रिका सीता के पास डारी, सो शीघ्र से कहा- उसने प्रसन्न होकर मंदोदरी को सीता के पास भेजा ही उसे देख रोमांच हो आया और कुछ मुख हर्षित हुआ। || मंदोदरी ने आकर सीता से कहा- नी हे बाले! आज तूं प्रसन्न हुई सुनी सो मेरे पति की वार्ता आई तुमने हम पर बड़ी कृपा की है। अब है। मेरे पति आनन्द से लोक का स्वामी रावण। उसे अंगीकार हैं, इसलिए मुझे हर्ष | कर जैसे देवलोक की लक्ष्मी इन्द्र हुआ है। को भजती है। हे भाई जो तब श्री हनुमान ने हाथ जोड़ कर विनती की- फिर मंदोदरी ने हनुमान से कहा - मेरे पति की | हे साध्वी! स्वर्ग विमान समान महलों में श्रीराम विराजे हैं। बड़ा आश्चर्य है कि तुं भुमि गोचरियों का मुद्रिका लाया। आपके विरह में कहीं भी उनका मन नहीं लग रहा है। गीत || दूत बन कर आया है। तुम राजा मयकी ह वह दशन | रागरंग कुछ भी उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है। आपको देखने पुत्री और रावण की पटराणी! के निमित्त केवल प्राणों को धारण किये हुए हैं। दूती बन कर आई हो? जावो पति के महल में देवियों के सुख भोगो। उसे गलत कार्य करते मना नही करती हो? देवो। हनुमान के ये वचन सुन सीता आनन्द को प्राप्त हुई। फिर सजल नेत्र हो पूछा- हनुमान ने श्रीराम का सारा समाचार बताया। जैन चित्रकथा 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना वल्लभ विष का भोजन करे और उनके जाने के बाद हे देवी ! यह सागरांत पृथ्वी श्रीरामचन्द्र जी की है, उसे दूर नही करो, जो अपना भला बुरा हनुमान ने सीता को इसलिए यहां का अन्न उन्हीं का है, वैरियों का नहीं नही जाने, उसका जीना पशु समान है। नमस्कार कर कहा- है। श्रीराम का कुशल समाचार भी मिल गया। । पति पर स्त्री रत हुआ और तुम दूतीपना करो। तुम अर्धचक्री की महीषी कहिए। पटराणी हो भैंस समान जानता हूँ। VOC इस तरह हनुमान के कहने और अपनी प्रतिज्ञा पति के समाचार सुनू-तब भोजन करूं' सो समाचार आये ही-तब सीता सब आचार में विलक्षण, महासाहसी, शीलवंती, दयावंती, देशकाल की जानने वाली, आहार लेना अंगीकार किया। तब हनुमान ने ईरा नामकी स्त्री तब मंदोदरी आदि राणी अपमान | कुल पालिका को कहकर सीता के लिए भोजन की व्यवस्था करवायी। सीता ने चूडामणी | होने पर रावण के भवन गई। उतार कर हनुमान के दी और हनुमान सीता को धीरज बंधाकर वापस रवान हो गये। जब रावण को पता लगा कि वन में कोई विद्याधर आया है। क्रोधित होकर महानिर्दयी किंकर हनुमान को मारने के लिए भेजे। हनुमान जी ने सबको मार-मार कर भगा दिया। बाग को तहस नहस कर दिया, तब इन्द्रजीत आया भयंकर युद्ध हुआ। उसने नागफास से पकड़कर हनुमान को रावण के दरबार में हाजिर किया। बंधन तोड़कर हनुमान वापस श्रीराम के पास आये- सारा समाचार बताया-चूड़ामणि श्रीराम को हे हनुमान! सत्य कहो हे नाथ! आपका ध्यान कर रही हैं, आप के विरह में निरन्तर रूदन कर मेरी स्त्री जीवित है? रही हैं। अत्यंत दु:खी हैं। अब आपको जो करना हो सो करो। AAVAN तब श्रीराम लक्ष्मण ने सुग्रीव की वानर सेना, भामण्डल की विद्याधर सेना ने लंका का घेरा डाला... 24 जनक नन्दनी सीता Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधर रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करली और सीता केपास जाकर बोला- सीता ने दोनो हाथ कानों पर रखकर गद्गद् वाणी में कहाहे देवी ! मैंने कपट पूर्वक तुम्हारा हरण किया, यह मेरे लिए शोभा की बात हे दशानन! तूं बड़े कुल में जन्मा है तो ऐसा करना कदाचित नहीं है परन्तु कर्म की गति ऐसी है, मैनें प्रण कर रखा है कि 'बल पूर्वक संग्राम में तेरे और मेरे वल्लभ के शस्त्र प्रहार हो तो पहले ये परनारी का सेवन नहीं करूंगा' इसलिए मैंने तुम्हरी कृपा की आशा रखी। मेरा संदेशा कहे बिना मेरे कंथ को मत मारना ! कहना - हे सुन्दरी ! अब मेरे बाणों से तुम्हारे अवलम्बन राम लक्ष्मण भिदे ही जान। हे पद्म! भामण्डल की बहिन ने तुम से कहा है कि 'तुम्हारे तुम मेरे साथ पुष्पक विमान में बैठ आनन्द से विहार करो। वियोग शोक में महादु:खी हूँ, मेरे प्राण तुम्हारे तक ही हैं। तुम्हारे दर्शन की आशा में ये प्राण टिके हुए हैं।' TALIRALA MILAN ऐसा कह मुर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। यह अवस्था देख रावण का दिल पसीजा- दु:खी हुआ चिन्ता में सोचने लगा। भयंकर संग्राम में रावण मारा गया। युद्ध समाप्त हो गया। श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, भामण्डल सभी ने लंका नगर में प्रवेश किया- सीता के मैंने अति अयोग्य कार्य किया। जो ऐसे स्नेहवान युगल का वियोग समीप जो उर्मिका नामकी सखी-इशारे से सीता को कहने लगीकिया- लोक में अपयश का भागी बना। यह अब तक देवांगना लग रही थी परन्त अब विषैली नागन लग रही है। विभीषण का हे देवी! चन्द्रमा समान है छत्र जिनका, चांद सूरज समान है कण्डल जिनके, शरस निझरने समान है हार जिनके सो पुरूषोत्तम श्रीरामचन्द्र योद्धा मारे गये। कदाचित जानकी राम के पास भेजें तो लोग मुझे तुम्हारे वल्लभ आये हैं। तुम वियोग में उदास हो रही हो। हे कमल कायर समझेंगे और युद्ध में महाहिंसा हो रही है। राम लक्ष्मण को | नयनी! जैसे दिग्गज आते हैं वैसे आ रहे हैं। जैसे बादलों से जीवित पकड़ फिर बहत धन देकर सीता सहित भेजं. तो पापचन्द्रमा निकलता है वैसे ही हाथी से उतर कर आये हैं। न लगे। यह न्याय है, इसलिए मैं ऐसा ही करूंगा। लग रही थी परतो अच्छा था। अब तो मपास भेजें तो लोग मुझे नयनी! जैसे ATI AV जैन चित्रकथा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब सीता स्वामी को निकट आया जान हर्षित होकर सन्मुख आई। सो महा ज्योति का धारणवाला, सजल नेत्र उसे हृदय से लगाकर सुख सागर । में मन हुआ। सीता राम का समागम देखकर देव प्रसन्न हुए, पुष्प वर्षा होने लगी। लक्ष्मण ने चरण स्पर्श किया, भामण्डल भाई मिले, हनुमान, नल, नील, अंगद, विराधित, चन्द्र सुषेण, जांबंद आदि बड़े-बड़े विद्याधर सुनाय कर वंदना व स्तुति करने लगे वस्त्राभूषण भेंट करने लगे । जैसे सूर्य की प्रभा, सूर्य सहित प्रकाश करती है वैसे ही आप श्रीरामचंद्र सहित जयवंत होवें। more Cam लंका का राज्य विभीषण को देकर श्रीराम, सीता, लक्ष्मण पुष्पक विमान से अयोध्या आये, हर्षोल्लास पूर्वक भव्य स्वागत हुआ। Lanash 3098570 श्रीसीता राम लक्ष्मण राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए । दशों दिशाओं में श्रीराम सीता की यशोगाथा शोभायमान हुई । 26 जनक नन्दनी सीता Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु सीता के कर्मदोष से मूढ लोग ये अफवाह जब श्रीराम के पास पहुंची अपवाद उठाने लगे। तब श्रीराम ने भली भांति सोच विचार कर सेनापति को बुलाय और आदेश दिया रावण ने सीता का हरण किया। श्रीराम जीत कर वापस ले आये। फिर से घर में रखी, राम महाज्ञानी बड़े कुलीन, चक्री, महावीर उनके घर में यह रीति तो और लोगों की क्या बात Man 更 an जैन चित्रकथा शीघ्र ही सीता को ले जाओ, मार्ग में जिन मंदिर दर्शन करवाकर उनकी आशा पूर्णकर सिंहनाद की अटवी, जहां मनुष्य नाम नहीं वहां अकेली छोड़ आवो। जो आज्ञा होगी वही होगा, कुछ वितर्क नहीं करूंगा। | तब सीता रथ चढी भगवान को नमस्कार किया और रथ पवन वेग से बढ चला। चलते समय अपशकुन हुए, जिन भक्ति में अनुरागिणी निश्चल चित चली गयी अपशकुन न गिने पहाड़ों के शिखर, कन्दरा, वन उपवन, उलंघकर शीघ्र ही रथ दूर गया। भव्य रथ पर जा रही राम की राणी इन्द्राणी समान लग रही थी। नदी के पार जाकर सेनापति ने रथ रोक दिया और अवरुद्ध कण्ठ से अश्रुपूरित आंखों से करबद्ध निवेदन किया। именить उसने महाराणी जानकी के पास जाकर कहा हे माता! उठो रथ में चढो चेत्यालय दर्शन की वांछा है सो करो हे मातः ! दुर्जन के वचन से राम अपकीर्ति के भय से जो न तजाजाय तुम्हारा स्नेह उसे तज कर चैत्यालयों के दर्शन की उपजी अभिलाषा पूर्ण कराकर भयानक वन में तजी है। हे देवी! जैसे यति राग परणति को तजे वैसे ही राम ने तुमको तजी है। लक्ष्मण ने कहने की हद थी सो कही कुछ कमी नही रखी। अनेक न्याय के वचन कहें परन्तु राम ने हठ नही छोड़ी। अब तुमको धरम ही शरण है। इस संसार में धर्म ही जीव का सहाई है। inde प 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये वचन सुन कर सीता बज्रपात कहने लगी- मुझे प्राण नाथ से मिलाओ warn wel 28 यह जगत दुर्निवार है। जगत ऐसा कहकर रथ सूं उतरी और पाषाण का मुख बंद नहीं किया जा भरी पृथ्वी पर अचेत होकर मुर्छा सकता। जिसके मुख में जो खाय पड़ी। वृतांतवक्र सीता को आवे, सो ही कहे। लोक चेष्टा रहित मुर्छित देखकर बहुत गडरिया प्रवाह है सो अपने दुःखी हुआ। हाय! यह भयानक हृदय में है गुणभूषण लौकिक वन अनेक हिंसक जीवों से भरा । वार्ता नहीं धरना हम स्त्री जन महाधीर, शूरवीर हो उनके जीने की है कभी कोई परिहास्य यश आशा नहीं तो ये कैसे जीवेगी? अप्रिय वचन कहा हो तो इसके प्राण बचना कठिन है । इस महासती माता को मैं अकेली वन में छोड़ कर जा रहा हूँ मेरे समान निर्दयी कौन होगा? क्षमा करना । 444444 की मारी जैसी पुनः संभलकर हे माता! नगरी दूर रही और राम का दर्शन दूर। 2. moditie तब आंखों में आंसू भरकर कहने लगीहे सेनापति! मेरे वचन राम से कहना-जैसे पिता पुत्र की रक्षा करे, वैसे ही आप प्रजा का पालन करना। आप राज्य से सम्यग्दर्शन को विशेष भला | जानना। जो अविनाशी सुख का दाता है। अभव्य जीव निन्दा करे तो भी हे पुरूषोत्तम सम्यग्दर्शन | कदापि मत छोड़ना। यह अत्यन्त दुर्लभ है। | जैसे हाथ में आया रत्न समुद्र में डाल दिया। तो फिर हाथ नही आयेगा। T जब मूर्छा से सचेत हुई तो महादुःख की भरी यूथभ्रष्ट मृगी की तरह विलाप करने लगी। हाय कमल नयन राम मेरी रक्षा करो मैं मन्दभागिनी पूर्व जन्म में अशुभकर्म किये जिसके फल से निर्जन वन में दुःख को प्राप्त हुई कोई युगल बिछोवा जिससे मुझे स्वामी का वियोग हुआ। मैं बलभद्र की पटराणी, स्वर्ग समान महल की निवासिनी अब पाप के उदय से निर्जन वन मे भटक रही हूँ । ma जनक नन्दनी सीता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार सीता विलाप कर रही थी। उस समय पुण्डरीकपुर का राजा | सारी बात सुनकर राजा वज्रजंघ अति उद्वेग को प्राप्त हुआ वज्रजंघ हाथी पकड़ने के लिए उधर से निकला। सीता के विलाप को सुन | सीता के पास आकर आदर पूर्वक कहने लगा। कर निकट आया और पूछा पुन: रूदन करने लगी, राजा ने धीरज | हे शुभमते! तुम जिनशासन में प्रवीण निसंदेह राम तुझे आदर से हे बहिन ! वह वज्रसमान कठोर बंधाया तब आंसू ढारती गदगद होकर बोली| हो। शोक कर रूदन मत करो। यह बुलायेंगे, इस तरह धर्मात्मा महाअसमझ है, जो तुझे ऐसे मैं राजा जनक की पत्री. भामण्डल की बहिन आर्तध्यान दु:ख का कारण है। वन ने सीता के शांतता उपजाई। बन में त्याग गया। उसका हृदय राजा दशरथ की पुत्रवधु, सीता मेरा में हाथी के निमित्त मेरा आना हुआ। मानो भाई भामण्डल ही मिला है। पुण्य लापणा नाम, राम की राणी हैं। लोकापवाद मैं वज्रजंघ पुण्डरीकपुर का अधिपति अपनी अवस्था का कारण बताओ। के भय से मुझे यहां त्याग गये। तू मेरा अति उत्कृष्ट भाई है। राजा शुभ आचरण का धारक हूं - महायशस्वी, शूरवीर, भयमत करो, गर्म का खेद मत करो। तू मेरे धर्म के विधान कर बड़ी बहिन है। पुण्डरीकपुर चलो। बुद्धिमान शान्तचित्त साधर्मि पर वात्सल्य करने ouTRA वाला उत्तम जीव है। तदन्तर वजजंघ ने पालकी मंगवाई, उसपर सीता आरूढ हुई- युद्ध कला में निपुण वज्रजंघ के साथ दिग्विजय कर आयेपुण्डरीकपुर पहुंचे- वहां सबका सम्मान पाकर हर्षित हुई। एक बार नारद जी द्वारा श्रीराम, लक्ष्मण का परिचय पाकर तदन्तर नव महीना पूर्ण हुए श्रावण सुदी पूर्णिमा के दिन पूनम के सीता का अकारण वनवास जानकर क्रोधित होकर अयोध्या पर चन्द्रमा समान पुत्र युगल को जन्म दिया। राजा वज्रजंघ ने अति | चढाई करने चले। सामने श्रीराम लक्ष्मण ने भी युद्ध का डंका उत्सव किया। एक का नाम अनंगलवण, दूजे का मदनाकुश। ये यथार्थ | बजा दिया भामण्डल को पता चला तो वह विमान में सीता को | नाम रखे। क्रीड़ा करते सुन्दर बालकों को देख कर सीता समस्त भी ले आया। फिर वापस पुण्डरीपुरी भेज दिया। दुःख भूल गई। वे दोनो वीर, महाधीर, ज्ञानवान, लक्ष्मीवान, पृथ्वी के सूर्य पुण्डरीकपुरी में देवों की तरह विचर रहे हैं। 1जैन चित्रकथा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध में राम, लक्ष्मण को सेना सहित शस्त्र रहित कर दिया। पता | |सबने कही। आप आज्ञा करोगे सो ही होगा- सब देश के राजा बुलाये। चलने पर श्रीराम ने दोनो भाईयों को छाती से लगाया । उनको लेकर बालवृद्ध स्त्री परिवार सहित अयोध्या नगरी आये। राम की आज्ञा, से अयोध्या पहुंचे। वहां सबने श्रीराम से निवेदन किया, सीता निर्दोष | |भामण्डल, विभीषण, हनुमान ये बड़े-बड़े राजा पुण्डरीकपुरी गये। जानकी है. उसे वापस बुलाओ। तब श्रीराम ने कहा। मैं सीता को शीलाक पास जाकर प्रणाम कर 770 के पास जाकर प्रणाम कर आंगन में बैठे- तब सीता आंसू ढारती कहने दोष रहित जानता हूँ। वह उत्तमचित्त है, परन्तु लोकापवाद से लगी। दुर्जनों के वचन रूपी हे देवि! अब शोक तजो घर से निकाली है। अब कैसे बुलाऊं? इसलिए लोगों में प्रतीति |दावानल से दग्ध हुए हैं अंग| अपना मन समाधान की उपजाय कर जानकी आवे तब हमारा सहवास होय। अन्यथा ||मेरे सो क्षीर सागर के जल से [बात में लगाओ। कैसे होय, इसलिए सब देश के राजा, विद्याधर, भूमिगोचर आवें।||सींचने से भी शीतल नहीं होंगे।। सबके देखते सीता दिव्य लेकर शुद्ध होय मेरे घर में प्रवेश करे। Ke IMAZATO यह पुष्पक विमान श्रीरामचंद्र ने भेजा है। हाथी पर सवार होकर सखियों सहित दरबार में पहुंची। सब सभा विनय संयुक्त सीता उस पर आनन्द रूप होकर अयोध्या चलो।। को देख वंदना करने लगी। हे माता! सदा जयवंत हो वो। वन्दो, वरधो, फूलो फलो सब देश और नगर और श्रीराम का घर धन्य है यह रूप, धन्य है धैर्य, धन्य है सत्य, तुम बिना शोभा नहीं देता। तुम्हें अवश्य धन्य है यह ज्योति, धन्य है निर्मलता। पति का वचन मानना है। GORTAL 15 IFA जब ऐसा कहा तब सीता मुख्य सहेलियों को लेकर पुष्पक विमान ने आरूढ हो| | ऐसे वचन समस्त नर-नारी के मुख से निकले सभी पलक रहित महाकौतुक कर शीघ्र ही अयोध्यापुरी आई। सीता के दर्शन करते रहे। पुण्योदय से जनक सुता वापस आई। जनक नन्दनी सीता 30 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब सीता राम के सामने | तुम महा निर्दयी हो, तुमने विद्वान होकर यह कह कर रूदन करने लगी तब सीता ने कहापहुंची, तब राम ने कहा- मूों की तरह मेरा अपमान किया तब राम बाल-मैं जानता हूँ आप आज्ञा करो सो ही प्रमाण मेरे आगे क्यों खडी है? सो कहां उचित है? मुझ गर्भवती को तुम्हारा निर्दोष शील है और जगत में दिव्यं है सो सब कर तुम परे जावो। मैं तुझे जिन दर्शन की अभिलाषा उपजाकर तुम निष्पाप अणुव्रत धारिणी के पृथ्वी का संदेह दूर करूं देखने का इच्छुक नहीं| कुटिलता पूर्वक यात्रा का नाम लेकर |मेरी आज्ञाकारिणी हो। तुम्हारी | महाविष कालकूट पीवू? हूँ तूं बहुत मास दशमुख विषम वन में डाली। यह कहां उचित भावना की शुद्धता मैं भली भांति अग्नि की विषम ज्वाला में के घर रही तझे अब मेरे । है? मेरा कमरण होता और कुगत्ति | जानता हूँ, परन्तु ये जगत के लोग प्रवेश करूं? आपकी घर रखना कहां उचित है? जाती इससे तुम्हें क्या सिद्ध होता? | कुटिल स्वभाव है। इन्होंने तुम्हारा [आता हो सोही कम NILEB जो तुम्हें तजनी ही थी तो आर्यिकाओं || अपवाद उठाया इनका संदेह के समीप छोड़ देते। तुमने करने में || मिटे वैसा करो। कोई कमी नही छोड़ी। अब प्रसन्न होकर आज्ञा दो क्या करूं? AAAAAA एक क्षण विचार कर राम बोले - अग्निकुण्ड में प्रवेश करो। बस यही प्रमाण। सब लोग भयसे व्याकुल होकर आंसू बहाने लगे। राम के आदेश से तीन सो हाथ कुण्ड खोद कर सूखी चन्दन की लकड़ी भरवायी गयी। अग्नि प्रज्वलित की गयी। धुंए का अन्धकार हो गया। सीता उठी और सिद्धों व तीर्थंकरों को नमस्कार बोली मनवचन और काया से सपने में भी राम बिना और पुरूष मैं नहीं जाना। जो मैं झूठ कहती हूँ तो ये अग्नि ज्वाला मुझे भस्म कर दे। RCMY जैन चित्रकथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना कह णमोकार जप करती हुई सीता अग्नि कुण्ड में | |जब ऐसे निश्छल वचन उनके मुख से निकले तब माता की दया से प्रवेश कर गयी। उसके शील से अग्नि निर्मल शीतल हो गयी। जल थम्भा। लोग बचे। कुण्ड के बीच एक सहस्वदल कमल पर अग्नि की सामग्री सब विलुप्त हो गयी। जल के झाग उठने लगे।। सिंहासन पर सीता विराजमान, देवांगनाएं सेवा करती हुई। जल उछला। समुद्र के ज्वार के समान लोगों के गले तक || प्रकट हुई। दशोदिशाएं गुंजायमान होने लगी। पानी भर गया, तब लोग भयभीत होकर पुकारने लगे श्रीमत् राम की राणी अत्यन्त जयवंत होवो हे देवि! हे लक्ष्मी! हे प्राणी दयारूपिणी। हमारी रक्षा करो। निर्मल शील आश्चर्यकारी है। हे महासाध्वी दया करो। हे माता! बचावो प्रसन्न हो वो। ऐसा कह अपने हाथ से सिर के बाल उपाड़ राम के सम्मुख डाले और पृथ्वी मति आर्यिका के पास जाकर जिन दीक्षा धारण कर ली। तब दोनों पुत्र लवण-अंकुश अतिहर्ष भरे माता के समीप जाकर दोनों तरफ खड़े हो गये। रामचन्द्र सीता को लक्ष्मी समान देखकर महाअनुराग भरे समीप गये और कहा- हे देवि! कल्याण हे राजन! तुम्हारा कोई दोष नहीं, इन रूपिणी हम पर प्रसन्न होवो। अब मैं लोगों का दोष नहीं, मेरे अशुभ कर्मों के कभी ऐसा दोष नहीं करूंगा जिससे तुम्हें उदय से यह दुःख हुआ है। मैं किसी दुःख होय। हे शील रूपिणी मेरा अपराध से नाराज नहीं हूँ। तुम्हारे प्रसाद से क्षमा करो। हे महासती। मैं लोकापवाद के स्वर्ग समान सुख भोगे। अब इच्छा है भय से अज्ञानी होकर तुम्हे कष्ट दिया, जिस उपाय से स्त्रीलिंग का अभाव हो क्षमा करो। हे कान्ते तुम जो कहोगी वही ऐसा काम करूं। अब सब दुःखों के | मैं करूंगा। साध्वी अब प्रसन्न हो जावो। निवृति हेतु जिनेश्वरी दीक्षा लूंगी। 62 वर्ष तक घोर तपश्चर्या करके 16वें अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया- इति जनक नन्दनी सीता Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के प्रसिद्ध महापुरुषों पर आधारित रंगीन सचित्र जैन चित्र कथा जैन धर्म के प्रसिद्ध चार अनुयोगों में से प्रथमानुयोग के अनुसार जैनाचार्यों के द्वारा रचित ग्रन्थ जिनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्ति, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, कामदेव, तीर्थक्षेत्रों, पंचपरमेष्ठी तथा विशिष्ट महापुरुषों के जीवन वृत्त को सरल सुबोध शैली में प्रस्तुत कर जैन संस्कृति, इतिहास तथा आचार-विचार से सीधा सम्पर्क बनाने का एक सरलतम् सहज साधन जैन चित्र कथा जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान वर्द्धक संस्कार शोधक, रोचक सचित्र कहानियां आप पढ़ें तथा अपने बच्चों को पढ़ावें आठ वर्ष से अस्सी तक के बालकों के लिये एक आध्यात्मिक टोनिक जैन द्वारा आचार्य धर्मश्रु ग्रन्थमाला एवं मानव शान्ति प्रतिष्ठान सम्पर्क सूत्र : अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर विलासपुर चौक, दिल्ली-जयपुर N. H. 8, गुड़गाँव, हरियाणा फोन : 09466776611 09312837240 ब्र. धर्मचन्द शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हती जैन मन्दि अष्टापद मानव शान्ति प्रतिष्ठान विलासपुर चौक, निकट पुराना टोल, दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 8, गुड़गांव (हरियाणा) फोन नं. : 09466776611, 09312837240