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________________ सीता के वचन सून विभीषण रावण से | परदारा की अभिलाषा अति भयंकर, महानिध्य, विभीषण के वचन सुन रावण बोलाविनय पूर्वक कहने लगा-हे देव! यह परनारी| दोऊ लोक नाश करणहार, लज्जाजनक, ऐसा पृथ्वी पर जो सुन्दर वस्तु है, अग्नि की ज्वाला है, विषैले सर्प के फण, अनीतिकार्य कभी भी नहीं करना चाहिए। सबका मैं स्वामकी हूँ। सब समान भयंकर है, आप किस लिए लाए हो? आप सब कुछ जानते हुए सब मर्यादा आप मेरी वस्तुएँ हैं। पराई वस्तु अब शीघ्र ही वापस भेज दो। हे स्वामी! मैं बाल ही से रहती है। आप विद्याधरों के महेश्वर,, कहां से आई? बुद्धि हूँ, परन्तु मेरी विनती सुनो- आपकी कीर्ति | ये जलता अंगार किसलिए हृदय से लगा रहे सर्व दिशाओं में व्याप्त हो रही है। ऐसा न हो जो| हो। जो पाप बुद्धि परदारा सेवन करते हैं। अपयश रूप अग्नि से यह कीर्तिलता भस्म हो जाये।।। I वे नरक में जाते हैं। रावण ऐसा कह कर और बात करने लगा। उधर श्रीराम लक्ष्मण सीता को खोजते हुए किस्किंधापुर आये- वहां सुग्रीव से| अतिदया उपजी प्रमद उद्यान जहां सीता विराजे | मित्रता हुई। श्री हनुमान को सीता की खोज के लिए भेजा। हनुमान जी लंका में वहां हनुमान गये- दूर ही से सीता को देखापहुंचकर पहले विभीषण से मिले और उन्हें रावण को समझाने के लिए कहा-| हनुमान मन में विचारने लगे..... ये काम तुम्हारे योग्य नहीं है, चारों तरफ तुम्हारी अपकीर्ति होगी, तब विभीषण धन्य रूय या माता का, जीते हैं सर्व लोक जिसने ने कहा- मैंने बहुत बार भाई को समझाया, परन्तु वह मानता नही है। जिस मानों ये कमल से निकली लक्ष्मी ही विराज रही हैं। दिन से सीता ले आया। उस दिन से मुझसे बात भी नहीं करता है तथापि तुम्हारे दु:ख के सागर में डुब रही हैं, या समान और कहने से मैं बहुत दबाय कर कहूंगा, परन्तु यह हठ उससे छूटना कठिन है और कोई नारी नही है। मैं जैसे भी हो इसे श्रीराम से आज ग्यारहवां दिन है। सीता निराहार है, पानी भी नही पीया है। | मिलाऊं। इसके और श्रीराम के काज अपना तन दूं, ANCHAL इनका और श्रीराम का विरह नहीं देखू । जनक नन्दनी सीता
SR No.033226
Book TitleJanak Nandini Sita
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size9 MB
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