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उधर रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करली और सीता केपास जाकर बोला- सीता ने दोनो हाथ कानों पर रखकर गद्गद् वाणी में कहाहे देवी ! मैंने कपट पूर्वक तुम्हारा हरण किया, यह मेरे लिए शोभा की बात हे दशानन! तूं बड़े कुल में जन्मा है तो ऐसा करना कदाचित नहीं है परन्तु कर्म की गति ऐसी है, मैनें प्रण कर रखा है कि 'बल पूर्वक संग्राम में तेरे और मेरे वल्लभ के शस्त्र प्रहार हो तो पहले ये परनारी का सेवन नहीं करूंगा' इसलिए मैंने तुम्हरी कृपा की आशा रखी। मेरा संदेशा कहे बिना मेरे कंथ को मत मारना ! कहना - हे सुन्दरी ! अब मेरे बाणों से तुम्हारे अवलम्बन राम लक्ष्मण भिदे ही जान। हे पद्म! भामण्डल की बहिन ने तुम से कहा है कि 'तुम्हारे तुम मेरे साथ पुष्पक विमान में बैठ आनन्द से विहार करो।
वियोग शोक में महादु:खी हूँ, मेरे प्राण तुम्हारे तक ही हैं। तुम्हारे दर्शन की आशा में ये प्राण टिके हुए हैं।'
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ऐसा कह मुर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। यह अवस्था देख
रावण का दिल पसीजा- दु:खी हुआ चिन्ता में सोचने लगा। भयंकर संग्राम में रावण मारा गया। युद्ध समाप्त हो गया। श्रीराम, लक्ष्मण,
हनुमान, अंगद, भामण्डल सभी ने लंका नगर में प्रवेश किया- सीता के मैंने अति अयोग्य कार्य किया। जो ऐसे स्नेहवान युगल का वियोग
समीप जो उर्मिका नामकी सखी-इशारे से सीता को कहने लगीकिया- लोक में अपयश का भागी बना। यह अब तक देवांगना लग रही थी परन्त अब विषैली नागन लग रही है। विभीषण का हे देवी! चन्द्रमा समान है छत्र जिनका, चांद सूरज समान है कण्डल
जिनके, शरस निझरने समान है हार जिनके सो पुरूषोत्तम श्रीरामचन्द्र योद्धा मारे गये। कदाचित जानकी राम के पास भेजें तो लोग मुझे तुम्हारे वल्लभ आये हैं। तुम वियोग में उदास हो रही हो। हे कमल कायर समझेंगे और युद्ध में महाहिंसा हो रही है। राम लक्ष्मण को |
नयनी! जैसे दिग्गज आते हैं वैसे आ रहे हैं। जैसे बादलों से जीवित पकड़ फिर बहत धन देकर सीता सहित भेजं. तो पापचन्द्रमा निकलता है वैसे ही हाथी से उतर कर आये हैं। न लगे। यह न्याय है, इसलिए मैं ऐसा ही करूंगा।
लग रही थी परतो अच्छा था। अब तो मपास भेजें तो लोग मुझे नयनी! जैसे
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जैन चित्रकथा