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इतना कह णमोकार जप करती हुई सीता अग्नि कुण्ड में | |जब ऐसे निश्छल वचन उनके मुख से निकले तब माता की दया से प्रवेश कर गयी। उसके शील से अग्नि निर्मल शीतल हो गयी। जल थम्भा। लोग बचे। कुण्ड के बीच एक सहस्वदल कमल पर अग्नि की सामग्री सब विलुप्त हो गयी। जल के झाग उठने लगे।। सिंहासन पर सीता विराजमान, देवांगनाएं सेवा करती हुई। जल उछला। समुद्र के ज्वार के समान लोगों के गले तक || प्रकट हुई। दशोदिशाएं गुंजायमान होने लगी। पानी भर गया, तब लोग भयभीत होकर पुकारने लगे
श्रीमत् राम की राणी अत्यन्त जयवंत होवो हे देवि! हे लक्ष्मी! हे प्राणी दयारूपिणी। हमारी रक्षा करो।
निर्मल शील आश्चर्यकारी है। हे महासाध्वी दया करो। हे माता! बचावो प्रसन्न हो वो।
ऐसा कह अपने हाथ से सिर के बाल उपाड़ राम के सम्मुख डाले और पृथ्वी मति आर्यिका के पास जाकर जिन दीक्षा धारण कर ली।
तब दोनों पुत्र लवण-अंकुश अतिहर्ष भरे माता के समीप जाकर दोनों तरफ खड़े हो गये। रामचन्द्र सीता को लक्ष्मी समान देखकर महाअनुराग भरे समीप गये और कहा- हे देवि! कल्याण हे राजन! तुम्हारा कोई दोष नहीं, इन रूपिणी हम पर प्रसन्न होवो। अब मैं लोगों का दोष नहीं, मेरे अशुभ कर्मों के कभी ऐसा दोष नहीं करूंगा जिससे तुम्हें उदय से यह दुःख हुआ है। मैं किसी दुःख होय। हे शील रूपिणी मेरा अपराध से नाराज नहीं हूँ। तुम्हारे प्रसाद से क्षमा करो। हे महासती। मैं लोकापवाद के स्वर्ग समान सुख भोगे। अब इच्छा है भय से अज्ञानी होकर तुम्हे कष्ट दिया, जिस उपाय से स्त्रीलिंग का अभाव हो क्षमा करो। हे कान्ते तुम जो कहोगी वही ऐसा काम करूं। अब सब दुःखों के | मैं करूंगा। साध्वी अब प्रसन्न हो जावो। निवृति हेतु जिनेश्वरी दीक्षा लूंगी।
62 वर्ष तक घोर तपश्चर्या करके 16वें अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया- इति
जनक नन्दनी सीता