Book Title: Janak Nandini Sita
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ | तदन्तर रावण सीता को लेकर विमान के शिखर पर गया शोक विह्वल सीता का मुख कमल कुमला गया देख रावण दीन वचन कहने लगा। हे देवी! मैं कामवाण से पीड़ित हूं, हे सुन्दरी। यह तेरा मुखकमल सर्वथा कोप संयुक्त है तो और भी मनोहर लगता है। प्रसन्न हो जावो, एक बार मेरी तरफ देखलो विमान शिखर पर चारों तरफ देखो, सूर्य से भी ऊपर आकाश में आया हूँ, मेरू कुलाचल और समुद्र सहित पृथ्वी देखो मानो खिलौना है। खरदूषण की मदद को गये हस्त प्रहस्तादि उसके मरने के बाद उदास होकर लंका आये। रावण ने किसी की ओर नहीं देखा जानकी को ही नाना वचन कहकर प्रसन्न करने में लगा रहा सो कहां प्रसन्न होने वाली थी, नागके माथे की मणी को कोई प्राप्त नही कर सकता। वैसे ही सीता को कोई मोह में नहीं डाल सकता। रावण देवारण्य उपवन में कल्पवृक्ष की छाया में सीता को बिठा कर अपने भवन गया। जब तक राम लक्ष्मण की कुशलक्षेम की बात नहीं सुनू तब तक खान-पान का मेरे त्याग है। 1 हे अधम । दुर रह, मेरे अंग का स्पर्श मत कर, ऐसे निध्य वचन कभी मत बोल रे पापी अल्पायु ! कुगतिगामी अपयशी तेरा यह दुराचार तुझे ही भयकारी है परदारा की अभिलाषा करता तूं महादुःख पावेगा। कर्महीण तु बहुत पछतावेगा । जैन चित्रकथा उधर रावण ने मन्दोदरी को सिखाकर सीता को मनाने भेजा वह रावण की अठारह हजार रानियों को साथ लेकर देवारण्य उद्यान में सीता के पास जाकर बोली। हे सुन्दरी! हर्ष के स्थान पर विषाद क्यों कर रही हो? जिस स्त्री के रावण पति सोही जगत में धन्य है सब विद्याधरों का अधिपति, सुरपति दिजेता, तीनो लोकों मैं सबसे सुन्दर, उसे क्यो नहीं चाहती हो। निर्जन बन के वासी, निर्धन, शक्तिहीन उनके लिए क्यों दुःख कर रही हो? सर्वलोकों में श्रेष्ठ, उसे अंगीकार करके क्यों नहीं सुखी होवो । 19

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36