Book Title: Janak Nandini Sita
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 22
________________ मेरा कहा जो न करोगी तो जो कुछ तेरा होनहार तब अश्रुपूर्ण नेत्रों से गद् गद् वाणी में सीता ने कहा - है सो होगा। रावण बलवान है, कदाचित उसकी र हे नारी ! यह वचन तुमने सब ही विरूद्ध करे। तुम पतिव्रता कहलाती हो, बात नहीं मानेगी तो उसके कोप से तुम्हारा पतिव्रताओं के मुख से ऐसे वचन कैसे निकलते हैं। यह शरीर मेरा छिद भला नहीं होगा। राम लक्ष्मण तुम्हारे सहाई| जाय, भिद जाय, हत जाय, परन्तु अन्य पुरूष को नही चाहुं। रूप चाहे सनतकुमार हैं तो रावण के कोप किये उनका भी जीतना |समान हो या इन्द्र समान हो मेरे क्या काम का। मैं सर्वथा अन्य पुरुष को नही चाहूं। नहीं है, इसलिए शीघ्र ही उसे अंगीकार कर परम तुम सब अठारह हजार रानियां इकट्ठी होकर आई हो, तुम्हारा कहना मैं नहीं | ऐश्वर्य को पाकर देवदुर्लभ सुख भोग। मानूंगी। तुम्हारी इच्छा हो जैसा करो। उसी समय मदन के आताप पीड़ित रावण जैसे तृषातुर हाथी गंगा के तीर आवे वैसे सीता के समीप आकर आदरपूर्वक मधुर वाणी में कहने लगाहे देवी! तूं भय मत कर मैं तेरा भक्त ऐसा कह स्पर्श करने लगा- तब हूं। हे सुन्दरी। चित्त लगाकर एक सीता क्रोधित होकर कहने लगीविनती सुन। मैं तीन लोक में किस। किम किस पापी! परे जा, मेरा अंग वस्तु रहित हूं जो तूं मुझे नही मत स्पर्श कर। चाहती है। क्रोध और कुशील पुरुष का वैभव मल समान है अभिमान और जो शीलवंत है उनके दरिद्र ही छोड़ प्रसन्न आभूषण है, जो उत्तम वंश में जन्मे हो, शची हैं उनके शील की हानि से दोनों लोक इन्द्राणी बिगड़ते हैं, इसलिए मेरे तो मरण ही समान दिव्य शरण हो तू पर स्त्री की अभिलाषा भोगों की रखता है सो तेरा जीना वृथा है। स्वामिनी बनों। 20 जनक नन्दनी सीता

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