Book Title: Jainism Author(s): Vallabh Smarak Nidhi Publisher: Vallabh Smarak NidhiPage 66
________________ काल के विभाग इस संसार में अनादि से जो काल-चक्र चल रहा है, जैन शास्त्रों में उस काल के मुख्य दो विभागां किये हैं-एक अवसर्पिणी, दूसरा उत्सर्पिणी। (१) अवसर्पिणी काल अर्थात् उतरता हुआ समय । जिस काल में आयुष्य, बल, सुख, अवगाहना आदि सब अच्छी बातें दिन प्रति दिन घटती जाती हैं उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं। (२) उत्सर्पिणी काल-अर्थात् चढ़ता हुआ समय । जिस काल में आयुष्य, बल, सुख, अवगाहना आदि शुभ वृत्तियों की दिन प्रति दिन वृद्धि होती है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। ____ उक्त दोनों कालों के ६-६ विभाग हैं जिनको आरे कहते हैं, इनके नाम और क्रम निम्न प्रकार हैं: १-अवसर्पिणी काल के छः आरे-(१) सुखम सुखम, ( अर्थात् एकान्त सुखम), (२) सुखम, (३) सुखम दुःखम, (४) दुःखम सुखम, (५) दुःखम और (६) दुःखम दुःखम । ये छः आरे पूरे होने पर एक अवसर्पिणी काल होता है और उसके बाद फिर उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है। + हिन्दू शास्त्रों में जिस प्रकार काल के सतयुग, कलयुगादि चार विभाग किये हैं, उसी प्रकार जैन शास्त्रों में काल के मुख्य दो भेद और उनके विभाग रूप छः छः आरे बताये हैं। हिन्दू शास्त्रों की मान्यता अनुसार वर्तमान में कलियुग हैं, जैन शांस्त्रों की मान्यतानुसार वर्तमान में भारतवर्षादि क्षेत्रों में अवसर्पिणो का पांचवाँ आरा है । नाम भेद होते हुए भो तात्पर्य दोनों का एकसा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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