Book Title: Jainism Author(s): Vallabh Smarak Nidhi Publisher: Vallabh Smarak NidhiPage 88
________________ ५ अक्रूर-अक्लिष्ट अध्यवसाय, मन का मलीन न हो। ६ भीरु-इहलोक और परलोक के अपाय-दुःखों से डरता हुआ निःशङ्क अधर्म में प्रवृत्ति न करे। ७ अशठ-निश्छमाचारनिष्ठ अर्थात किसी के साथ ठगी न करे। ८ सदाक्षिण्य-अपना काम छोडके भी पर का (दूसरे का) काम करदे । ९ लज्जालु-अकार्य (न करने योग्य कार्य) करने की बात सुन कर लजित हो और अपना अङ्गीकार किया हुआ धर्मसदनुष्ठान कदापि त्याग न करे । १० दयालु-दयावान, दुःखी जन्तुओं की रक्षा करने का इच्छुक हो, क्यों कि धर्म का मूल ही दया है। ११ मध्यस्थ-राग-द्वेष विमुक्त बुद्धि, पक्षपात रहित हो। १२ सौम्यदृष्टि—किसी को भी उद्वेग करने वाला न हो। १३ गुणरागी-गुणों का पक्षपाती हो।। १४ सत्कथा-सपक्ष युक्त सत्कथा सदाचार धारण करने से जिसके कुटुम्बी जन शोभनीय प्रवृत्ति के कथन करने वाले तथा सहायक हों अर्थात् धर्म क्रिया करते हुए को परिवार के लोग निषेध न करें। १५-सुदीर्घदर्शी-जिससे परिणाम में अच्छा फल हो, इस प्रकार अच्छी तरह विचार कर कार्य करे। १६ विशेषज्ञ-सार और असार वस्तु के स्वरूप को जाने। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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