Book Title: Jainism Author(s): Vallabh Smarak Nidhi Publisher: Vallabh Smarak NidhiPage 71
________________ १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ पुद्गलास्तिकाय, और ५ काल । [इनका विवेचन आगे पृष्ठ ९ पर किया गया है] ३ पुण्य-जिसके उदय से .जीव को सुख हो उसे पुण्य कहते हैं। ४ पाप-जिसके उदय से जीव को दुःख हो उसे पाप कहते हैं। ५ आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग इन कारणों से कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। ६ संवर-कर्मों के आस्रव का निरोध करना संवर कहलाता है। ७ निर्जरा-बन्धे हुए कर्मों का अर्थात् जिन कर्मों का स्पृष्ट, बद्धस्पृष्ट, निद्धत्त और निकाचित* रूप से बन्ध किया है उन कों का तप, चारित्र, ध्यान, जप आदि द्वारा जीव-आत्मा से पृथक करना 'निर्जरा' तत्त्व कहलाता है। ८ बन्ध-जीव और कर्म का परस्पर खीर-नीर अर्थात् दूध और पानी की तरह लोलीय भाव-मिलाप होना बन्ध तत्त्व कहलाता है। ९ मोक्ष-स्थूल शरीर-औदारिक,x सूक्ष्म शरीर-तेजसा * निकाचित-जिन-कमों का बन्ध अतिगाढ- दृढ होता है, उसे निकाचित कहते हैं । इस बन्ध वाले कर्म प्रायः सबको भोगने ही पडते हैं। x औदारिक शरीर-अर्थात् उदार प्रधान पुद्गलों से बना हुआ शरीर । जैसे कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का शरीर औदारिक है। । तैजस शरीर-किये हुए आहार को पग कर रस, रक्त आदि रूप में परिणत करने वाला शरीर तैजस शरीर कहलाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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