Book Title: Jainism
Author(s): Vallabh Smarak Nidhi
Publisher: Vallabh Smarak Nidhi

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Page 70
________________ ६५ ( २ ) चारित्र धर्म – इसमें साधु और गृहस्थ धर्म का वर्णन करते हैं । श्रुत-धर्म श्रत धर्म में - नवतत्त्व, षड्द्रव्य, षटुकाय और चार गतियों का वर्णन होता है जिनका संक्षिप्त निर्देश यहां किया जाता है । नवतन्त्र १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आस्रव, ६ संवर, ७ निर्जरा, ८ बन्ध और ९ मोक्ष, ये नवतत्त्व हैं । १ जीव – जैन सिद्धान्तानुसार जीव का लक्षण है चैतन्य स्वरूप, वह जीव ज्ञानादि धर्मों से कथविद भिन्न है और कथविद् अभिन्न है तथा जीव परिणामी अर्थात् विविध प्रकार की गतियों और जातियों में उत्पत्ति रूप परिणामों का अनुभव करने वाला और भोगने वाला है । शुभा - शुभ कर्म का कर्त्ता जौर भोक्ता, तप आदि साधनों द्वारा सर्व कर्मों का नाश करके मोक्ष पद को प्राप्त होने वाला है । द्रव्यार्थे - ( द्रव्य की अपेक्षा से ) जीव सदा अनादि अनन्त अविनाशी और नित्य है । पर्यायार्थे— (पर्याय की अपेक्षा से ) अनेक अवस्थाओं की उत्पत्ति और विनाश वाला है । २ अजीव - पूर्वोक्त सब लक्षणों से जो विपरीत हो अर्थात् जिसमें चैतन्य आदि लक्षण न हों उसे अजीव कहते हैं । इसे पांच भागों में विभक्त किया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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