Book Title: Jainism Author(s): Vallabh Smarak Nidhi Publisher: Vallabh Smarak NidhiPage 79
________________ ७७ करने से जो अनन्तानन्त परमाणु* के अनन्त स्कन्धा आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं, उनको : कर्म कहते हैं। जैसे-तेल से चुपड़े हुए शरीर पर सूक्ष्म रज जम जाती है, वैसे ही पूर्वकृत कर्मोदय से जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि रूप चिकनाहट से जड़ का सम्बन्ध आत्मा से होता है। जब ये कर्म उदय होते है, तब उनके कारण जीव १२४ तरह के सुखदुःख भोगते हैं, इत्यादि अनेक तरह से कर्म का स्वरूप जैन मत में माना है। संक्षेप में जैनों का मन्तव्य १-अरिहन्त और सिद्ध इन दोनों पदों को परमेश्वर पद रूप मानते हैं। २-एक ही ईश्वर है, इस प्रकार एकान्त रूप से नहीं मानते है। ३-ईश्वर को सर्व-व्यापक नहीं मानते, परन्तु ईश्वर-पद की ज्ञायक-ज्ञान-शक्ति सर्व व्यापक मानते हैं। ४-ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते। ५--संसार को प्रवाह से अनादि मानते हैं । ६-ईश्वर को जगत् का नियन्ता नहीं मानते है। * परमाणु-पुद्गल अतिसूक्ष्म स्वतन्त्र भागको अर्थात् छोटे से छोटे जर को परमाणु कहते हैं। । स्कन्ध-पुद्गल परभाणुओं के मिले हुए समूह को स्कन्ध कहते हैं । * पुण्य-सुख के ४२, पाप-दुःख के ८२ कुल १२४ हुए, इनके भेदों के लिये देखो 'नवतत्त्व, गाथा १० से १५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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