Book Title: Jainism
Author(s): Vallabh Smarak Nidhi
Publisher: Vallabh Smarak Nidhi

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Page 78
________________ उनकी आयु, अवगाहना आदि का विस्तार सहित वर्णन प्रज्ञापना सूत्र, संग्रहणी सूत्रादिकोंमें है। सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर १३ तेरह योजन के अन्तर पर लोकान्त है, उस लोकान्त आकाश को जैन मान्यतानुसार सिद्ध क्षेत्र कहते हैं। इस आकाश क्षेत्र में मुक्तात्माएँ रहती हैं, उसके ऊपर अलोक है अर्थात् केवल आकाश ही आकाश है, वहां पर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, इन पांचों में से कोई भी द्रव्य वहां पर नहीं होता। इस लोक के चारों तरफ ऊपर नीचे जहां केवल आकाश ही आकाश है उसे अलोक कहते हैं। यह अलोक अनन्त है और इस अलोक में जड़ और चैतन्य की न तो गति हुई है और न होगी। उक्त दोनों लोक और अलोक किसी ने भी नहीं रचे बल्कि ये अनादि अनन्त और स्वतः सिद्ध हैं। जैन धर्म में आठ कर्म माने गये हैं, उनके नाम ये हैं१ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तराय। इन आठों कर्मों के १४८ मध्यम भेद हैं, इन कर्मों का विस्तार सहित वर्णन षट्-कर्मग्रन्थ, पंच संग्रह, कर्म प्रकृति, प्रज्ञापना आदि सूत्रों में है। कर्म-उन्हें कहते हैं। जिनके प्रभाव से सर्व संसारी जीव देह धारण करके अनेक प्रकार की सुख दुःखादि अवस्था भोग रहे हैं। ये कर्म वास्तव में जड़ हैं, जीवों के शुभाशुभ काम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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