Book Title: Jainism
Author(s): Vallabh Smarak Nidhi
Publisher: Vallabh Smarak Nidhi

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Page 75
________________ ६ त्रसकाय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, इन चार जाति के जीवों को सकाय कहते है। __ अन्य मत वाले वनस्पति काय को पृथ्वी काय के अन्तर्भूत मानते हैं तथा पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इनको चार तत्त्व या चार भूत मानते हैं, परन्तु जैन धर्म इस प्रकार स्वीकार नहीं करता। जैन धर्म में तो इनको जीव माना है। अर्थात् इन जीवों ने शरीर रूप में जो अनन्त परमाणु ग्रहण करके कर्मों के निमित्त से असंख्य शरीरों का जो पिण्ड रचा है वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति है, ऐसा मानते हैं और ये पांचों ही प्रवाह रूप से अनादि हैं, पहिले के जीव मरते जाते हैं और उन्हीं शरीरों में तथा अन्य शरीरों में नवीन जीव इन्हीं पाँचों में से मर कर (पर्याय बलद के ) उत्पन्न होते हैं और उन जीवों के विचित्र प्रकार के कर्मोदय से विचित्र प्रकार के रङ्ग रूप होते है। इनके शरीरों में जो परमाणुओं का समूह है, उसमें अनन्त प्रकार की शक्तिया हैं और उनके परस्पर मिलने से अनेक प्रकार के कार्य जगत में होते हैं, एवं इनके परस्पर मिलने से—(१) काल, (२) स्वभाव, (३) नियति, (४) कर्म, (५) उद्यम-परस्पर की प्रेरणा इन पांचों शक्तियों से एवं पदार्थों के मिलने से विचित्र प्रकार की रचना अनादि प्रवाह से होती रही है और होगी। ये पांचों शक्तियाँ जड़ एवं चैतन्य पदार्थों के अन्तर्भूत ही हैं, पृथक् नहीं। इस लिये इस जगत के नियमों का नियन्ता और कर्ता ईश्वरको नहीं मानते, प्रत्युत यह मानते हैं कि जढ़ और चैतन्य पदार्थों की शक्तिया ही कर्ता और नियन्ता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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