Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति-परिचय 'मु०' प्रति यह प्रति सरस्वतीभवन, काशीसे प्रकाशित हुई है। इसमें अध्याय ३ पाद २ सूत्र ६० तक ही छपे हैं। 'अ' प्रति यह भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूड पूनाको प्रति है । इसमें पत्र संख्या ४०२, पङक्ति प्रति पृष्ठ १५ और अक्षर प्रति पङ्क्ति लगभग ४६ हैं। साइज साँची सुपर रायल । पुस्तकके अन्तमै लेखनकाल तथा लेखक आदिका नाम निम्न प्रकार है “फागणमासे शुकृपते तिथो ३ बुधवासरे संवत् १८८३ का । लीखकृतं माहतमा पनालाल वासी सवाई जयपुरका । लिखी आगरा मध्ये। लिषायतं चम्पारामजी पुस्तक मथुराको।" 'ब' प्रति यह श्रीस्याद्वाद दिगम्बर जैन महाविद्यालय काशीको प्रति है। इसमें कुल पत्र ४०३ हैं, प्रत्येक पृष्ठमैं १० पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्तिमें लगभग ३२ अक्षर हैं । प्रति पूर्ण है। पुस्तकके अन्तमें समय अादिका निर्देश निम्न प्रकार है “अथ संवत्सरस्मिन् विक्रमाकसमयातीत् सं० १९२६ वर्षे श्री मच्छालिवाहन शाके १६६४ प्रवर्तमाने उत्तरायने वशंतती [?] आषाढमासे कृष्णपक्ष दशम्यां तिथौ शुक्रवासरे समाप्तमिति ।...."ऐन्द्रपुरी नगरमध्ये।" 'स' प्रति यह भी श्रीस्यादवाद दिगम्बर जैन महाविद्यालय काशीकी ही प्रति है। इसमें पत्र संख्या ३९४ है। पत्र संख्या १ से २७० तक प्रतिपृष्ठ १३ या १४ पंक्तियाँ और प्रति पङ्क्ति लगभग २५ अक्षर है। उसके आगेके पत्र दूसरे लेखकके लिखे हुए प्रतीत होते हैं जिनमें प्रत्येक पृष्ठमें १६ पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्ति में 1 ३४ अक्षर हैं। प्रति सुवाच्य तथा प्रायः शुद्ध है किन्तु इसके ३५० से ३६२ तक पत्र नहीं हैं। यह प्रति अाध्याय ५ पाद १ सूत्र ३४ में जाकर समाप्त हो जाती है। इससे अागेके पत्र नष्ट प्रतीत होते हैं। 'द' प्रति यह प्रति भी श्रीस्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय काशीकी है। इसके २७५ पत्रों में अध्याय ४ पाद १ सूत्र १२५ तकको वृत्ति उपलब्ध है। इसके प्रारम्भके ४९ पत्रों में प्रतिपृष्ठ ११ पक्तियाँ तथा प्रतिपक्ति लगभग ३८ अक्षर हैं तथा उसके आगे पत्र संख्या ५० से २७५ तक प्रति पृष्ठ १२ पंक्तियाँ तथा प्रतिपङक्ति लगभग ४६ अक्षर हैं। 'पू०' प्रति यह प्रति भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूड पूनाकी है। यह दो भागोंमें विभक्त है। प्रथम भागमैं पत्र संख्या १ से ३१४ तक तथा दूसरेमें १ से ७४ तक है। इसके प्रत्येक पृष्ठमैं १४ पङ्क्तियाँ और प्रत्येक पङ्क्तिमें लगभग ४२ अक्षर हैं। दूसरे भागमें चतुर्थ अध्यायके चतुर्थं पादका कुछ अन्तिम भाग तथा पञ्चम अध्याय पूर्ण है । लेखन काल आदिका परिचय लेखकके शब्दों में निम्नप्रकार है "पंडित जन सू बीनती है परोक्ष मम एह । हीनाधिक लखि सोधियो हँसियो मति धरि नेह ॥ मिति चैत्र-शुकु २ भौमवासरे शुभ सम्वत् १९३३ का।" इन सभी प्रतियों में अध्याय ४ पाद ३ से पञ्चम अध्यायके अन्त तक बीच बीचमैं कुछ सूत्रोंकी वृत्ति . नहीं लिखी गई है जो यत्न करनेपर भी उपलब्ध न हो सकी और इसीलिए जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अाधारसे सूत्र-क्रममैं केवल सूत्रमात्रका निर्देश कर दिया गया है। For Private And Personal Use Only

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