Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
देवनन्दिका समय देवनन्दिने अपने किसी ग्रन्थमें न तो कोई रचना-तिथि दी है और न अपनी गुरुपरम्परा । इसलिए उनके समयका निर्णय उनके ग्रन्थों के उल्लेखों तथा दूसरे साधनोंसे ही करना पड़ेगा।
जैनेन्द्र व्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' [५-१-७] सूत्रमें सिद्धसेनका मत दिया है और प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने सिद्धसेनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है। उनके लेखका सारांश आगे दिया जाता है--
"जैसलमेरके जैन भण्डार में विशेषावश्यक भाष्यकी जो अतिशय प्राचीन प्रति मिली है उसके अंतमें ग्रन्थकार जिनभद्र गणिने स्वयं ही ग्रन्थ-रचना-काल दिया है। और उसके अनुसार उक्त ग्रन्थ वि० सं० ६६६ में वल्लभीमें समाप्त हुआ है। उन्होंने अपने इस विशेषावश्यक भाष्यमें और द्वितीय लघुग्रन्थ विशेषणवतीमें सिद्ध सेन और मल्लवादिके उपयोगाभेद-वादको विस्तृत समालोचना की है। मल्लवादि सिद्ध सेनके सन्मतितर्कके टीकाकार हैं। इससे सिद्ध होता है कि मल्लवादि और सिद्धसेन जिनभद्रगणिसे क्रमशः पूर्व और पूर्वतर हैं। मल्लवादिके विनष्टमूल द्वादशार नयचक्रके जो प्रतीक उसके विस्तृत टीकाग्रन्थमें मिलते हैं उनमें सिद्धसेन दिवाकरके उल्लेख तो हैं, परन्तु जिनभद्रगणिके नहीं है। इससे फलित होता है कि मल्लवादि जिनभद्रसे पहले हुए हैं और मल्लवादिने सिद्धसेनके सन्मतितर्कपर टीका लिखी थी, इसका निर्देश श्राचार्य हरिभद्रने किया है । अतः यह सिद्ध है कि सिद्धसेन मल्लवादिसे पहले हुए हैं। इसलिए मल्लवादिको विक्रमकी छठी शताब्दिके पूर्वार्धमें माना जाय, तो सिद्धसेनका समय पाँचवीं शताब्दि ठीक लगता है। ___ "सिद्धसेनके मतके अनुसार 'विद्' धातुमें 'र' का आगम होता है, भले ही वह सकर्मक हो। उनकी नवी द्वात्रिंशतिकाके २२वें पद्यमें 'र' श्रागमवाला 'विद्रते' प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण 'सम्' उपसर्गपूर्वक अकर्मक विद् धातुमें 'र' श्रागम मानते हैं जब कि सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातुमें 'र' श्रागमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकाके [अ०७ सूत्र १३] में सिद्ध सेनकी तीसरी द्वात्रिंशिकाके १६ पद्यकी 'उक्तं च' शब्दके साथ “वियोजयति चासुभिन वधेन संयुज्यते" पंक्ति उद्धृत की है । द्वात्रिंशिकामैं यह पूरा पद्य इस प्रकार है
वियोजयति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपु [4] रुषस्मृतेर्विद्यते । बधायतनमभ्युपैति च पराननिघ्नमपि
स्वयाऽयमतिदुर्गमः प्रथ[श]महेतुरुद्योतितः ॥१६॥ "पूज्यपाद देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध माना जाता है। परन्तु मेरी समझमें अभी इसपर और भी गहराईसे विचार होनेकी जरूरत है। यदि सिद्धसेनको देवनन्दिसे पूर्ववर्ती अथवा उनका वृद्धसमकालीन माना जाय, तो भी उनका समय पाँचवीं शताब्दिसे अर्वाचीन नहीं जान पड़ता।"
सिद्धसेनसे देवनन्दि कितने बादके हैं, इसका निर्णय करनेके लिए देवसेनके दर्शनसारसे भी कुछ सहायता मिल सकती है। यह ग्रन्थ उन्होंने वि० सं० ६६० में धारानगरीमें निवास करते हुए पूर्वाचार्योकी बनाई हुई गाथाओंका एकत्र संचय करके-'पुच्वाइरियकयाई गाहाई संचिजण एयत्थ' लिखा गया है । अर्थात् इस ग्रन्थकी गाथाएँ देवसेनसे भी पहलेकी हैं और इस दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता अधिक है । उसके अनुसार श्री पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदि वज्रनन्दि द्राविड संघका कर्ता हुश्रा और तब दक्षिण मथुरा [मदुरा] में
देखो भारतीय विद्या, भाग ३, अंक ५ में 'श्री सिद्धसेन दिवाकरनां समयनी प्रश्न' शीर्षक लेख।
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