Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण
३३ ___५-सिद्धप्रियस्तोत्र-निर्णयसागरकी काव्यमाला [सप्तमगुच्छ] में छप चुका है। २६ पद्योंमें चौबीस तीर्थङ्करोंकी स्तुति है।
अनुपलब्ध ग्रन्थ शब्दावतार न्यास और जैनेन्द्र न्यास--पूज्यपादका पाणिनि व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामका न्यास है और जैनेन्द्रपर स्वोपज्ञ न्यास भी है।
वैद्यक ग्रन्थ-शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवके 'अपाकुर्वन्ति' आदि श्लोकके 'काय' शब्दसे ध्वनित होता है कि पूज्यपादका कोई वैद्यक ग्रन्थ होगा।
सार-संग्रह-धवला [वेदनाखंड पु० ९ पृ० १६७ ] के एक उद्धरणके अाधारसे 'सारसंग्रह' नामक एक और ग्रन्थके होने का अनुमान है-"तथा सारसग्रहऽप्युक्तं पूज्यपादैः अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।" यह कोई न्याय या सिद्धान्तका ग्रन्थ जान पड़ता है। उक्त वाक्यका 'पूज्यपाद' किसी अन्य पूज्य आचार्यका विशेषण भी हो सकता है।
'जैनाभिषेक' नामके एक और ग्रन्थका जिकर श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं.४० के 'जैनेन्द्र निजशब्द भागमतुलं' आदि श्लोकमें किया गया है।
इस लेखके लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजय और पं० बेचरदास जीवराजकी न्याय-व्याकरणतीर्थसे बहुत अधिक सहायता मिली है। इसलिए हम उक्त दोनों सज्जनोंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। मुनि महोदयकी कृपासे हमको जो साधन सामग्री प्राप्त हुई है यदि न मिलती तो यह लेख शायद ही इस रूपमें पाठकों के सम्मुख उपस्थित हो सकता।
परिशिष्ट १
पूज्यपाद-चरित कनड़ी भाषाके इस चरितको चन्द्रय्य नामक कविने जो कनाटक देशके मलयनगरकी 'बाह्मणगली' के रहनेवाले थे । दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें समाप्त किया है । चरितका सारांश यह है
१. अपाकुर्वन्ति यवाचः कायवाकचित्तसम्भवः । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥
पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्य टमें 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ है, परन्तु वह आधुनिक कनड़ीमें लिखा हुआ कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है। उसमें न कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न वह उनका बनाया हुआ है। “वैद्यसार नामका एक और ग्रन्थ अभी जैन-सिद्धान्त-भास्करमें प्रकाशित हुआ है, पर वह भी उनका नहीं है।
विजयनगरके राजा हरिहरके समयमें एक मंगराज नामके कनड़ी कवि हुए हैं। वि. सं. १४३६ के लगभग उनका अस्तित्व-काल है। स्थावर विषोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उनका खगेन्द्रमणिदर्पण नामका ग्रन्थ है। वे उसमें अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाते हैं और यह भी कि यह ग्रन्थ पूज्यपाद वैद्यक ग्रन्थसे संगृहीत है। अभी हाल ही शोलापुरसे उग्रादित्याचार्यका 'कल्याणकारक' नामका ग्रन्थ प्रकाशित हश्रा है। उसमें भी अनेक जगह 'पूज्यपादेन भाषितः' कहकर पूज्यपादके वैद्यक ग्रन्थका उल्लेख किया गया है। उग्रादित्य राष्ट्रकूट अमोघवर्षके समयके बतलाये गये हैं, परन्तु हमें इसमें सन्देह है। उसकी प्रशस्तिकी भी बहुत-सी बातें सन्देहास्पद हैं जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है।
२. इसके लिए प्रो. हीरालालजी जैन लिखित धवला (पुस्तक) की भूमिकाके पृष्ठ ६०-६१ देखिए।
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