Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र व्याकरणम् जैनेन्द्र-पाठके माननेवाले थे । पाठकोंको यह स्मरण रखना चाहिए कि उपलब्ध व्याकरणों में 'अनेकशेष' व्याकरण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं।
४-तत्त्वार्थ-टीका 'सर्वार्थसिद्धि' के कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि हैं । इस टीकामें अध्याय ५, सूत्र २४ की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, “ 'अन्यतोऽपि' इति तसि कृते सर्वतः।" और इसी सूत्रको व्याख्या करते हुए राजवार्तिककार लिखते हैं, " 'दृश्यतेऽन्यतोऽपीति' तसि कृते सर्वेषु सर्वत इति भवति ।" जान पड़ता है कि या तो सर्वार्थसिद्धिंकारने इस सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा. या लेखकों तथा छपानेवालोंने प्रारम्भका 'दृश्यते' शब्द छोड़ दिया होगा। वास्तवमें यह पूरा सूत्र 'दृश्यतेऽन्यतोऽपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्र-पाठके अ० ४ पा० १ का ७९ वाँ सूत्र है। परन्तु शब्दार्णववाले पाठमें न तो यह सूत्र है और न इसके प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई दूसरा सूत्र है। इससे सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपाठ वही है जिसमें उक्त सूत्र मौजूद है
५-भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिकमें 'श्राद्ये परोक्षम् [अ० १, सू०११ ] की व्याख्यामें "सर्वादि सर्वनाम" [१-१-३५ ] सूत्रका उल्लेख किया है, इसी तरह पण्डित श्राशाधरने अनगारधर्मामृतटीका [अ० ७ श्लो० २४ ] में "स्तोके प्रतिना" [१-३-३७ ] और "भार्थे [१-४-१४ ] इन दो सूत्रोंको उद्धृत किया है और ये तीनों ही सूत्र जैनेन्द्र के अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही हैं । शब्दार्णववाले पाठमें इनका अस्तित्व ही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशाधर इसी अभयनन्दिवाले पाठको ही माननेवाले थे। अकलंकदेव वि० की आठवीं नौवीं शताब्दिके और आशाधर १३, वीं शताब्दिके विद्वान् हैं।'
६-पं० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णव-चन्द्रिकाकी भूमिकामें लिखा है कि "आचार्य पूज्यपादने स्वनिर्मित सर्वार्थसिद्धि' में 'प्रमाणनयैरधिगमः' [अ० १ सू० ६ ] की टीकामें यह वाक्य दिया है-"नयशब्दस्याल्पान्तरत्वात् पूर्वनिपातः प्राप्नोति ? नैष दोषः, अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य तत्पूर्वनिपातः।" और अभयनन्दिवाले पाठमैं इस विषयका प्रतिपादन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है । केवल अभयनन्दिका 'अभ्यर्हितं पूर्व निपतति' वार्तिक है । यदि अभयनन्दिवाला सूत्र-पाठ ठीक होता तो उसमें इस विषयका प्रतिपादक सूत्र अवश्य होता जो कि नहीं है । पर शब्दार्णववाले पाटमें 'अर्यम्' [१-३-११५] ऐसा सूत्र है जो इसी विषयको प्रतिपादित करता है। इसलिए यही सूत्र-पाठ देवनन्दिकृत है।" इसपर हमारा निवेदन यह है कि “अल्पान्तरम्" [२-२-३४ ] यह सूत्र पाणिनिका है और इसके ऊपर कात्यायनका "अभ्यहितं च" वार्तिक तथा पतंजलिका "अभ्यहितं पूर्व निपतति” भाष्य है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि-टीकाके इस स्थल में पाणिनि
और पतंजलिके ही सूत्र तथा भाष्यको लक्ष्य करके उक्त विधान किया है। यह निश्चित है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में अन्य वैयाकरणों के भी मत दिये हैं और अनेक बार पतंजलिके महाभाष्यके वाक्य' ।
सर्वार्थसिद्धि अ० ४ सूत्र २२ की व्याख्यामें लिखा है-“यथाहुः-द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानमिति ।" इसकी अन्य पुरुषकी 'आहुः' क्रिया ही कह रही है कि ग्रन्थकर्ता यहाँ किसी अन्य पुरुषका वचन दे रहे हैं। अब पतंजलिका महाभाष्य देखिए। उसमें १-२-१ के ५ वे वार्तिकके भाष्यमै चिलकुल यही वाक्य दिया हुआ है-एक अक्षरका भी हेरफेर नहीं है। इससे स्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिके कर्त्ताने अन्य व्याकरण-ग्रन्थों के भी प्रमाण दिये हैं।
१. 'संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास' में श्री युधिष्ठिर मीमांसकने लिखा है कि जैनेन्द्रसे कई शताब्दि पूर्वके चान्द्र व्याकरणमें भी एकशेष प्रकरण नहीं है।
२. तत्त्वार्थराजवार्तिकमें इसी 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रकी व्याख्यामें पतंजलिका यह भाष्य ज्योंका त्यों अक्षरशः दिया है। अभयनन्दिका भी यही वार्तिक है। परन्तु तब तक अभयनन्दिका अस्तित्व ही म था।
३. राजनातिक और श्लोकवार्तिकमें भी यह वाक्य उद्धत किया गया है।
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