Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
कनड़ी भाषा के चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थके कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बतलाया है-“इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्सरिन्नाथ - श्रुतकीर्तित्रैविद्यच कवर्तिपदपद्मनिधानदीपवर्तिश्री मदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभचरिते -" इत्यादि । और यह चरित शक संवत् १०११ ( वि० सं० ११४६ ) मैं बनकर समाप्त हुआ है । अतएव यदि श्रुतकीर्ति और श्रुतकीर्ति त्रैविद्य चक्रवर्ती एक ही हों तो पंचवस्तुको भी श्रभयनन्दि महावृत्ति के पीछे की- विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के प्रारंभकी- रचना समझना चाहिए। नंदिसंघकी गुर्वावली में श्रुतकीर्तिको वैयाकरण- भास्कर लिखा है ।
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४ - लघुजैनेन्द्र- इसकी एक प्रति अंकलेश्वर ( भरोच) के दिगम्बर जैनमन्दिर में है और दूसरी अधूरी प्रति परतापगढ़ ( मालवा ) के पुराने दि० जैनमन्दिरमै । यह श्रभयनन्दिकी वृत्तिके आधार से लिखी गई है। पण्डित महाचन्द्रजी विक्रमकी इसी बीसवीं शताब्दिमें हुए हैं। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और भाषा में कई ग्रंथ लिखे हैं ।
५-- जैनेन्द्र- प्रक्रिया - यह पं० वंशीधरजी न्यायतीर्थं न्यायशास्त्रीने हाल ही लिखी है। इसका केवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है।
शब्दार्णवकी टीकाएँ
जैनेन्द्र सूत्र- पाठ के संशोधित परिवर्धित संस्करणका नाम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका है -- शब्दाव । इसके कर्ता गुणनन्दि हैं। यह बहुत संभव है कि सूत्र- पाठके सिवाय उन्होंने इसकी कोई टीका या वृत्ति भी बनाई हो जो कि उपलब्ध नहीं है ।
गुणनन्दि नामके कई विद्वान् हो गये हैं। एक गुणनन्दिका उल्लेख श्रवणबेलगोल के ४२, ४३ और ४७ वें नम्बरके लिखालेखों में मिलता है। ये बलाकपिच्छके शिष्य और गृध्रपिच्छके प्रशिष्य थे । तर्क, व्याकरण और साहित्य शास्त्रोंके बहुत बड़े विद्वान् थे। इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें ७२ शिष्य सिद्धान्तशास्त्री थे । आदि पंपके गुरु देवेन्द्र भी इन्हीं के शिष्य थे। कर्नाटक कविन्चरितके कर्ताने इनका समय वि० संवत् ६५७ निश्चय किया है। क्योंकि इनके प्रशिष्य देवेन्द्रके शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ६५६ में हुआ था और उसने ३६ वर्षकी अवस्था में अपने सुप्रसिद्ध कनड़ी काव्य भारतचम्पू और श्रादिपुराण निर्माण किये हैं । हमारा अनुमान है कि ये ही गुणनन्दि शब्दार्णवके कर्त्ता हैं ।
चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्त्ता वीरनन्दिका समय शक संवत् ९०० के लगभग निश्चित होता है । क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें उनका स्मरण किया है और वीरनन्दिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार
१. त्रैविद्यः श्रुतकीत्यख्यो वैयाकरण भास्करः ।
२. देखो जैन मित्र ता० २६ अगस्त १६१५ ।
३. महावृत्तिं शुंभत्सकलबुधपूज्यां सुखकरी, विलोक्योद्यद्ज्ञानप्रभु विभयन न्दिप्रवहिताम् ।
श्रनेकैः सच्छन्दर्भमविगतकैः संदृढभूतां (2) प्रकुर्वेऽहं ( टीकां ) तनुमतिमहाचन्द्रविबुधः (१) ॥
४. जैनेन्द्रकी एक टीका प्रक्रियावतार नामकी और है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र हैं । डिस्क्रिप्टिव कैटलाक आफ दि सं० मे० गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मेनु० लायब्रेरी मद्रास, वोल्यूम III में उसका परिचय दिया हैसर्वज्ञाय नमस्तस्मै वीतक्लेशाय शान्तये । येन भव्यात्मनश्चेतस्तमस्तोमश्चिकित्सितः || किं वाणीचतुरानः किमथवा वाचस्पति: कि न्वसौ, विद्यानां विभवात्सहस्रवदनस्साक्षादनन्तः किमु । इत्थं संसदि साधवः समुदितास्संशेरते सादरं, विद्वत्पुङ्गवनेमिचन्द्रभवति व्याख्यानमातन्वति || ५. तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः, तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणः साहित्य विद्यापतिः । मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरघटा संघातकण्ठीरवो, भव्याम्भोज दिवाकरो विजयतां कन्दर्पदः ॥
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