Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण अध्यायके पहले पादका १६ वाँ सूत्र है। यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्ध है परन्तु श्रागसे झुलसी हुई है । दूसरी प्रतिमें केवल तीन अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या १२००० है। इससे जान पड़ता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ १६००० के लगभग होगा ।
अभयनन्दिकी वृत्तिसे यह बड़ा है और उससे पोछे बना है। इसमें महावृत्तिके शब्द ज्योंके त्यों ले लिये गये हैं और तीसरे अध्यायके अन्तके एक श्लोकैमें अभयनन्दिको नमस्कार भी किया है।
इसके कर्ता प्रभाचन्द्र हैं और वे प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के ही कर्ता मालूम होते हैं। क्योंकि इसके प्रारंभमैं ही यह कहा गया है कि अनेकान्तकी चर्चा उक्त दोनों ग्रन्थों में की गई है, इसलिए यहाँ नहीं करते । अवश्य ही इसमें उन्होंने अपने ही ग्रन्थोंको देखनेके लिए कहा है, "अथ कोऽयमनेकान्तो मामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यासामान्याधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावनेकान्तः, अनेकान्तात्मक इत्यर्थः । तत्र च प्रतिष्ठितमिथ्याविकल्पकल्पिताशेषविप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षादिप्रमाणमेव प्रत्यस्तमयतीति (2) तद्धिततया तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानदिश्च यथा सिद्धयति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रतिरूपितमिह दृष्टश्यम् ।"
इसके मंगलाचरणमैं पूज्यपाद और अकलंकको नमस्कार किया गया है।
३-पंचवस्तु-भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटय टमें इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एक ३००४०० वर्ष पहलेकी लिखी हुई है और बहुत शुद्ध है और दूसरी संवत् १६२० की । पहलीपर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुश्रा है-“कृतिरियं देवनद्याचार्यस्य परवादिमथनस्य छ। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ श्रीसंघस्य ॥"
दूसरी प्रति रत्नकरण्डश्रावकाचारवचनिका आदि अनेक भाषाग्रन्थोंके रचयिता सुप्रसिद्ध पण्डित सदासुखजीके हाथकी संवत् १९१० की लिखी हुई है।
यह टीका प्रक्रिया-बद्ध है और बड़े अच्छे ढंगसे लिखी गयी है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० के लगभग है। प्रारंभके विद्यार्थियों के लिए बड़ी उपयोगी है।
इस ग्रन्थके आदि-अन्तमें कहीं भी कर्ताका नाम नहीं है । केवल एक जगह पाँचवें पत्रमें नाम अाया है, जिससे मालूम होता है कि इसके रचयिता श्रुतकीर्ति हैं।
१. नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ २. नं० १०५६ सन् १८८७-११ की रिपोर्ट ।
३. नं० ५६० सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट । इस ग्रन्थकी एक प्रति परतापगढ़ (मालवा ) के पुराने दि. जैनमन्दिरके भंडारमें भी है। देखो जैनमित्र ता. २६ अगस्त १९१५।
४.अब्दे नभश्चन्द्रविधिस्थिरांके शुद्ध सहय॑म (?) युक चतुर्थ्याम् ।
सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृत्तीरदनात्समाप्ता (?)॥ श्रीमन्नराणामधिपेशराज्ञि श्रीरामसिंहे विलसत्यलेखि । श्रीमद्धेमेह सदासुखेन श्रीयुक्फतेलालनिजात्मबुद्धय ॥ शब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः। किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृथांगसंधावपलापवद्भिः ॥ यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है।
५, याम वैर-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीना बहूनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः संपृच्छति स्म । कस्सन्धिरिति ।
संज्ञास्वरप्रकृतिहरूजविसर्गजन्मा संधिस्तु पंचक इतीत्थमिहाहुरन्ये । तत्र स्वरप्रकृतिहल्जविकल्पतोऽस्मिन्संधिं त्रिधा कथयति श्रुतकीर्तिरायः ।।
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