Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् २. अध्याय ४ तथा ५ में अनेक स्थलों पर सूत्र तथा उनकी वृत्ति खण्डित है। हमने उन स्थलों पर मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अनुसार सूत्रपाठ देकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न किया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. श्री त्रिपाठीजीने परिशिष्ट तैयार नहीं किये थे जिनकी पूर्ति हमें करनी पड़ी है। जो परिशिष्ट दिये गये हैं वे ये हैं- [१] जैनेन्द्र सूत्रों की अकारादि अनुक्रमणिका, [२] जैनेन्द्र वार्तिकों की अकारादि श्रनुक्रमणिका, [३] जैनेन्द्र परिभाषाओंकी अकारादि अनुक्रमणिका, [५] जैनेन्द्र गणपाठ सूची, [५] जैनेन्द्र संज्ञा सूची [इस सूची में विद्वानोंकी जानकारीके लिए जैनेन्द्र संज्ञाओं के साथ तत्समकक्ष पाणिनि संज्ञाओंका भी उल्लेख कर दिया है], [६] जैनेन्द्र तथा पाणिनिके सूत्रों की तुलनात्मक सूत्र-सूची और [७] जैनेन्द्रधुपाठ । प्रत्याहार - विचार उपलब्ध किसी भी प्रतिमैं प्रत्याहार-सूत्रों का उल्लेख नहीं मिलता। मालूम पड़ता है कि जैनेन्द्र व्याकरण में लेखक-परम्पराकी भूलसे उनका उल्लेख होना छूट गया है, क्योंकि शब्दानुशासन के सूत्रोंमें प्रत्याहारौका आश्रय लेकर शास्त्रोंकी प्रवृत्ति दिखलाई गई है। इस समय हमारे सामने दो प्रकार के प्रत्याहार-सूत्र उपस्थित हैं- प्रथम पञ्चाध्यायीके आरम्भ में आये हुए और दूसरे शब्दार्णवचन्द्रिका के आरम्भ में आये हुए । पञ्चाध्यायी के प्रारम्भ में आये हुए प्रत्याहार-सूत्र ये हैं “अइउण् १ । ऋलुक् २ । एत्रोङ ३ । ऐऔच् ४ । हयवरट् ५ । लण् ६ । ञमङणनम् ७ । झभञ् ८ । घढधघ् १ । जबगडद‍ १० । खफल्ठथचटत ११ । कपय् १२ । शपसर १३ । हल १४।” किन्तु शब्दार्णवचन्द्रिका में ग्राये हुए प्रस्याहार-सूत्रों में पञ्चाध्यायी के प्रत्याहार-सूत्रोंसे कुछ अन्तर है । यहाँ पर द्वैविध्यका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके लिए शब्दाविचन्द्रिका के प्रत्याहार सूत्र भी दिये जाते हैं “अइउणु १ । ऋकू २ । एओङ ३ । ऐश्रच ४ । हयवरलण् ५ । जमङणनम् ६ । भम् ७ । घढधष् ८ । जबगडदश् ह । खफछठथचटतव १० । कपय् ११ । शपल अं अः कर् १२ । हल् १३ ।” शब्दार्णवके ये प्रत्याहार-सूत्र शाटकायन के प्रत्याहारसूत्रों से बहुत कुछ साम्य रखते हैं । जानकारीके लिए शाकटायन के प्रत्याहार सूत्र भी यहाँ उद्धृत किये जाते हैं “अइउण् १ । ऋक् २ । एग्रोङ ३ | ऐऔच ४ । हयवरलज् ५ । जमङणनम् ६ | जबगडदश् ७ | सभघढधष् ८ । खफछठथद् । चटतवू १० | कपय् ११ । शषस अं अः क Čपर् १२ । हल् १३ ।” यह तो सुनिश्चित है कि महावृत्तिके आधारसे पञ्चाध्यायी में जो सूत्रपाठ उपलब्ध होता है उससे शब्दाव चन्द्रिकाका सूत्रपाठ बहुत अंशमैं भिन्न है और इसी सूत्रपाठके अनुसार प्रत्याहार-सूत्रों में अन्तर हुआ है; उदाहरणार्थ --- सन्धिसूत्रों में पञ्चाध्यायी में 'शश्वोऽटि' [५। ४ । १७३ ] सूत्र आता है उसके अनुसार टू प्रत्याहारके परे रहते 'श' के स्थान में 'छ' आदेश होता है किन्तु शब्दाविकारने उसके स्थान में 'शश्वोऽमि ' [ ५।४ । १५६ ] सूत्र को रखकर अटू प्रत्याहारको नहीं माना है और इसलिए 'हयवरट्, लण्' इन दो सूत्रों के स्थानमैं शब्दाविकारने 'हयवरलण्' यह एक ही प्रत्याहार-सूत्र माना है। इसी प्रकार अन्यत्र भी टू प्रत्याहारके निमित्त से होनेवाले कार्यों में शब्दार्णवकारने अन्य प्रकारसे निर्वाह करनेका प्रयास किया है । ऋ और लृ में अभेद मानकर 'ऋलक' के स्थान में शब्दार्णवकारने 'ऋक्' प्रत्याहार-सूत्र रखा है। अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा यमकी व्याकरण शास्त्रमें अयोगवाह संज्ञा है | पाणिनिके प्रत्याहार-सूत्रों में तथा जैनेन्द्र- पञ्चाध्यायीगत प्रत्याहार-सूत्रों में इनका उल्लेख नहीं हैं किन्तु शब्दाववाले पाठ में प्रयोगवाहका भी शर प्रत्याहार के अन्तर्गत समावेश किया है। शाकटायन व्याकरण के प्रत्याहारसूत्रों से शब्दार्णव के प्रत्याहार-सूत्र बहुत कुछ साम्य रखते हैं। ज्ञात होता है शब्दाविकारने शाकटायन व्याकरणके सूत्रोंके आधारसे ही अपने प्रत्याहार-सूत्रोंकी रचना करके तदनुसार ही जैनेन्द्र शब्दानुशासन के सूत्रों में परिवर्तन या परिवर्तन किया हो । सिद्धान्तकौमुदीके हल्सन्धि प्रकरण में एक वाक्य मिलता है- “ अनुस्वारविसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीययमानामकारोपरि शर्षु च पाठस्योपसंख्यानत्वेन । ज्ञात होता है कि शाकटायन तथा शब्दार्णवके प्रत्याहार-सूत्रों को ध्यान में रखकर ही मट्टोजिदीक्षितने उपर्युक्त वाक्य लिखा हो । कि For Private And Personal Use Only

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