Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
२. अध्याय ४ तथा ५ में अनेक स्थलों पर सूत्र तथा उनकी वृत्ति खण्डित है। हमने उन स्थलों पर मुद्रित जैनेन्द्र पञ्चाध्यायीके अनुसार सूत्रपाठ देकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न किया है।
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३. श्री त्रिपाठीजीने परिशिष्ट तैयार नहीं किये थे जिनकी पूर्ति हमें करनी पड़ी है। जो परिशिष्ट दिये गये हैं वे ये हैं- [१] जैनेन्द्र सूत्रों की अकारादि अनुक्रमणिका, [२] जैनेन्द्र वार्तिकों की अकारादि श्रनुक्रमणिका, [३] जैनेन्द्र परिभाषाओंकी अकारादि अनुक्रमणिका, [५] जैनेन्द्र गणपाठ सूची, [५] जैनेन्द्र संज्ञा सूची [इस सूची में विद्वानोंकी जानकारीके लिए जैनेन्द्र संज्ञाओं के साथ तत्समकक्ष पाणिनि संज्ञाओंका भी उल्लेख कर दिया है], [६] जैनेन्द्र तथा पाणिनिके सूत्रों की तुलनात्मक सूत्र-सूची और [७] जैनेन्द्रधुपाठ ।
प्रत्याहार - विचार
उपलब्ध किसी भी प्रतिमैं प्रत्याहार-सूत्रों का उल्लेख नहीं मिलता। मालूम पड़ता है कि जैनेन्द्र व्याकरण में लेखक-परम्पराकी भूलसे उनका उल्लेख होना छूट गया है, क्योंकि शब्दानुशासन के सूत्रोंमें प्रत्याहारौका आश्रय लेकर शास्त्रोंकी प्रवृत्ति दिखलाई गई है। इस समय हमारे सामने दो प्रकार के प्रत्याहार-सूत्र उपस्थित हैं- प्रथम पञ्चाध्यायीके आरम्भ में आये हुए और दूसरे शब्दार्णवचन्द्रिका के आरम्भ में आये हुए । पञ्चाध्यायी के प्रारम्भ में आये हुए प्रत्याहार-सूत्र ये हैं
“अइउण् १ । ऋलुक् २ । एत्रोङ ३ । ऐऔच् ४ । हयवरट् ५ । लण् ६ । ञमङणनम् ७ । झभञ् ८ । घढधघ् १ । जबगडद १० । खफल्ठथचटत ११ । कपय् १२ । शपसर १३ । हल १४।”
किन्तु शब्दार्णवचन्द्रिका में ग्राये हुए प्रस्याहार-सूत्रों में पञ्चाध्यायी के प्रत्याहार-सूत्रोंसे कुछ अन्तर है । यहाँ पर द्वैविध्यका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके लिए शब्दाविचन्द्रिका के प्रत्याहार सूत्र भी दिये जाते हैं
“अइउणु १ । ऋकू २ । एओङ ३ । ऐश्रच ४ । हयवरलण् ५ । जमङणनम् ६ । भम् ७ । घढधष् ८ । जबगडदश् ह । खफछठथचटतव १० । कपय् ११ । शपल अं अः कर् १२ । हल् १३ ।” शब्दार्णवके ये प्रत्याहार-सूत्र शाटकायन के प्रत्याहारसूत्रों से बहुत कुछ साम्य रखते हैं । जानकारीके लिए शाकटायन के प्रत्याहार सूत्र भी यहाँ उद्धृत किये जाते हैं
“अइउण् १ । ऋक् २ । एग्रोङ ३ | ऐऔच ४ । हयवरलज् ५ । जमङणनम् ६ | जबगडदश् ७ | सभघढधष् ८ । खफछठथद् । चटतवू १० | कपय् ११ । शषस अं अः क Čपर् १२ । हल् १३ ।”
यह तो सुनिश्चित है कि महावृत्तिके आधारसे पञ्चाध्यायी में जो सूत्रपाठ उपलब्ध होता है उससे शब्दाव चन्द्रिकाका सूत्रपाठ बहुत अंशमैं भिन्न है और इसी सूत्रपाठके अनुसार प्रत्याहार-सूत्रों में अन्तर हुआ है; उदाहरणार्थ --- सन्धिसूत्रों में पञ्चाध्यायी में 'शश्वोऽटि' [५। ४ । १७३ ] सूत्र आता है उसके अनुसार टू प्रत्याहारके परे रहते 'श' के स्थान में 'छ' आदेश होता है किन्तु शब्दाविकारने उसके स्थान में 'शश्वोऽमि ' [ ५।४ । १५६ ] सूत्र को रखकर अटू प्रत्याहारको नहीं माना है और इसलिए 'हयवरट्, लण्' इन दो सूत्रों के स्थानमैं शब्दाविकारने 'हयवरलण्' यह एक ही प्रत्याहार-सूत्र माना है। इसी प्रकार अन्यत्र भी टू प्रत्याहारके निमित्त से होनेवाले कार्यों में शब्दार्णवकारने अन्य प्रकारसे निर्वाह करनेका प्रयास किया है ।
ऋ और लृ में अभेद मानकर 'ऋलक' के स्थान में शब्दार्णवकारने 'ऋक्' प्रत्याहार-सूत्र रखा है। अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा यमकी व्याकरण शास्त्रमें अयोगवाह संज्ञा है | पाणिनिके प्रत्याहार-सूत्रों में तथा जैनेन्द्र- पञ्चाध्यायीगत प्रत्याहार-सूत्रों में इनका उल्लेख नहीं हैं किन्तु शब्दाववाले पाठ में प्रयोगवाहका भी शर प्रत्याहार के अन्तर्गत समावेश किया है। शाकटायन व्याकरण के प्रत्याहारसूत्रों से शब्दार्णव के प्रत्याहार-सूत्र बहुत कुछ साम्य रखते हैं। ज्ञात होता है शब्दाविकारने शाकटायन व्याकरणके सूत्रोंके आधारसे ही अपने प्रत्याहार-सूत्रोंकी रचना करके तदनुसार ही जैनेन्द्र शब्दानुशासन के सूत्रों में परिवर्तन या परिवर्तन किया हो । सिद्धान्तकौमुदीके हल्सन्धि प्रकरण में एक वाक्य मिलता है- “ अनुस्वारविसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीययमानामकारोपरि शर्षु च पाठस्योपसंख्यानत्वेन । ज्ञात होता है कि शाकटायन तथा शब्दार्णवके प्रत्याहार-सूत्रों को ध्यान में रखकर ही मट्टोजिदीक्षितने उपर्युक्त वाक्य लिखा हो ।
कि
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