Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ जैनेन्द्र-व्याकरणम् तः सुनिश्चत है कि जैनेन्द्र के समक्ष भी अपने स्वरचित धातुपाठ तथा गणपाठ अवश्य रहे होंगे किन्तु कालक्रम वे आज अनुपलब्ध हो गये हैं । ६. पाणिनि व्याकरणमैं उणादि- सिद्ध कार्योंके लिए "उणादयो बहुलम् " [ ३|३|१ ] सूत्र आता है । जैनेन्द्र व्याकरण में भी इसी रूपमें इस सूत्रका उल्लेख है [ २/२/१६ ] । इन दोनों मूल व्याकरणों में इस प्रकरण में आये हुए प्रयोगों की सिद्धिके विषय में इससे अधिक कुछ नहीं कहा गया है । मात्र जैनेन्द्र महावृत्तिमें इस सूत्र की व्याख्या करते समय कुछ सूत्रों के उल्लेखके साथ उनके द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोगोंके कतिपय प्रकार दिखलाये गये हैं । यह निश्चित कहना कठिन है कि जैनेन्द्र महावृत्ति में ये उणादि सूत्र कहाँ से श्राये । यदि इन्हें जैनेन्द्रकारका माना जाय तो शंका होती है कि पञ्चाध्यायी में इनका संकलन क्यों नहीं हुआ ? यद्यपि महावृत्ति में उल्लिखित उणादि सूत्रों में कहीं-कहीं जैनेन्द्रव्याकरणकी संज्ञाओं का प्रयोग किया हुआ दिखाई देता है यथा 'अस् सर्वधुभ्यः ' [ पृष्ठ १७ ]; पर जबतक कोई निश्चित आधार नहीं मिलता तबतक इन सूत्रों को स्वयं जैनेन्द्रकारका मान लेनेको मन नहीं होता । उणादि प्रकरणका संकलन करते हुए भट्टोजिदीक्षितने सिद्धान्तकौमुदी में ७५५ सूत्र प्रमाणपञ्चपादी उणादि सूत्रों की सोदाहरण व्याख्या दी है। किन्तु पाणिनिकी अष्टाध्यायी में ये सूत्र उपलब्ध नहीं होते । उणादिका निर्देश करनेवाला 'उणादयो बहुलम्' [ ३|३|१] सूत्र अष्टाध्यायी में उपलब्ध होता है किन्तु उसका संकलन भट्टोजिदीक्षितने उणादि प्रक्रियामें न करके उत्तर कृदन्तमें किया है। विद्वानोंका मत है कि ये उणादिसूत्र शाकटायन प्रणीत हैं जिनके समयका उल्लेख करते हुए श्रीयुधिष्ठिर मीमांसकने लिखा है कि 'इसका काल विक्रमसे लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा' । [ संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास पृष्ठ ११६] पातञ्जल महाभाष्य मैं एक वाक्य मिलता है; यथा- 'नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकः । ' इसका आशय यह है कि 'निरुक्तमें सभी संज्ञाशब्दोंको धातुज कहा है और व्याकरण शास्त्र में शकटके पुत्र [ शाकटायन] भी ऐसा ही कहते हैं।' इससे मालूम पड़ता है कि शाटकायन विरचित कोई ऐसा प्रकरण अवश्य रहा होगा जिसमें धातुओं के निमित्तसे प्रत्यय विधान करके संज्ञाशब्दों की सिद्धि की गई हो । वह प्रकरण उणादिके सिवा और क्या हो सकता है ? उणादिके दशपादी तथा त्रिपादी पाठ भी उपलब्ध होते हैं। [विशेष विवरण के लिए इसी ग्रन्थ में प्रकाशित श्री युधिष्ठिर मीमांसकका 'जैनेन्द्र शब्दानुशान और उसके खिलपाठ' शीर्षक निबन्ध देखिए.] । श्री डा० वासुदेवशरण जी अग्रवालने ज्ञानपीठके अनुरोधसे इसकी अनुसन्धानपूर्ण भूमिका लिखकर इसके महत्त्वको बढ़ाने की कृपा की तथा इनके ही अनुरोधसे ऐतिहासिक सामग्री की पूर्णता के लिए श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' में मुद्रित 'देवनन्दि तथा उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक वेणा पूर्ण निबन्ध छापने की अनुमतिपूर्वक उसके दूसरे संस्करणके फार्म भिजवाने की कृपा की जिससे ग्रन्थकारके विषय में ऐतिहासिक अन्वेषण के कठिन कार्यसे मुझे छुट्टी मिल गई। श्री युधिष्ठिर मीमांसकने भी 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ' शीर्षक अनुसन्धानपूर्ण निबन्ध लिखकर हमारी बहुत बड़ी सहायता की है। इतना ही नहीं, उन्होंने, प्रस्तुत संस्करण में जो थोड़ी बहुत त्रुटियाँ रह गई हैं, उनका उल्लेख करके आत्मीयतापूर्वक सौहार्द भी प्रदर्शित किया है । अतः उक्त तीनों विद्वानोंका विशेष आभारी हूँ । श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने भी समय समय पर उपयोगी सुझाव देकर इस ग्रन्थको शुद्ध, सर्वाङ्गपूर्ण तथा सर्वोपयोगी बनाने में सहायता दी तथा मेरे उत्साहको बढ़ाया इसलिए मैं उनका भी विशेष श्राभारी हूँ । कार्य बहुत बड़ा था और सम्पादनका मेरा यह पहला अवसर है, इसलिए सम्भव है कि इसमें अभी भी कुछ दोष रह गये हों। मेरा विश्वास है कि विद्वान् पाठक इसके लिए क्षमा करेंगे । वाराणसी दीपावली } - महादेव चतुर्वेदी वि० सं० २०१३ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 568