Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar View full book textPage 3
________________ सूत्र' में प्रमुख सात गोत्रों और प्रत्येक गोत्र की सात-सात शाखाओं अर्थात् ४९ शाखाओं के नाम मिलते हैं । 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली आदि से भी स्पष्ट है कि तीर्थंकरों गणधरों, आचार्योंके गोत्रोंके जो नाम मिलते हैं, वे इन्हीं के अन्तर्मुक्त हैं। भगवान ऋषभ और महावीर को काश्यप गोत्रीय बतलाया है और प्रथम गणधर इन्द्रभूति का गोत्रगौतम है। इससे (आचार्यों के ) गोत्रों का महत्व 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली अर्थात् वीर निर्वाण सं० ९८० तक तो बराबर चलता रहा और पुराने गोत्र ही प्रसिद्ध थे असा सिद्ध होता है। । । ___ श्वेताम्बर समाज की श्रीमाल और ओसवाल जातियों की स्थापना बहुत प्राचीन समय में हुई, कहा जाता है 'उपकेश गच्छ प्रबन्ध आदि बौदहवीं शती की रचनाओं में उल्लेख है कि वीर निर्वाण संवत ७, में पार्श्वनाथ संतानीय रत्नप्रभसूरि हुए, जिन्होंने ओसियाँ में जैनेतर राजा, मंत्री व जनता को प्रतिबोधित कर जैन बनाए । ओसियाँ नगर के नाम से उनका 'ओसवाल' वंश प्रसिद्ध हुआ । संस्कृत में ओसिया का नाम उपकेशनगर मिलता है अतः शिलालेखादि में ओस वंश का नाम 'उपकेश वंश' भी पाया जाता है। इससे पहले राजस्थान के प्राचीन श्रीमालनगर में स्वयंप्रभसूरि ने जो जैन बनाये थे, वे श्रीमाल वंश या जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीमालनगर के ही एक राजकुमार ने अपने पिता से रुष्ट हो कर ओसियाँनगर वसाया था । श्रीमालनगर के पूर्वी दरबाजे की ओर वसने वाले 'प्राग्वाट' या 'पोरवाई' कहलाए । ऐतिहासिक दृष्टि से 'उपकेश गच्छ प्रबन्ध' में जो श्रीमाल ओसवाल वंश स्थापना का समय दिया है, वह संभव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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