Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar View full book textPage 2
________________ प्रस्तावना जैन परम्परा के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में युगला धर्म निवारण करने वाले भारतीय सभ्यता के आद्य प्रादुर्भावक् प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव हुए । कहा जाता है कि जब वे बाल्यावस्था में थे, इन्द्र उनके पास इक्षु-ईख लेकर आया तो ऋषभ ने बड़ी उत्सुकता से सामने जाकर उस इक्षु दण्डको पकड़ लिया, जिससे इन्द्र ने मन में सोचा कि इन्हें इक्षु खाने की विशेष रुचि है, इस बात को लेकर आगे चलकर इक्ष्वाकु वंश की स्थापना हुई। भारतीय वंश परम्परा में यह सर्वप्रथम वंश का अभिधान हुआ । इतः पूर्व युगलियों की परम्परा थी। परिवार अत्यन्त सीमित था अतः व्यक्ति को जाति, कुल, वंश, गोत्र से पहिचानना आवश्यक नहीं था । भगवान ऋषभदेव जब राजा बने और नई राज्य व्यवस्था कायम की तब उग्र, भोग ओर राजन्य नामक तीन कुल स्थापित किए । क्रमशः परिवारों एवं जनसंख्या का विकास बढ़ता गया तो वर्णजाति-कुल-वंश, गोत्र के अनेकों नाम प्रसिद्धि में आ गए। वैदिक समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र इन चार वर्णों की व्यवस्था ब्रह्मा ने की, ऐसी प्रसिद्धि है। अनेक प्रसिद्ध ऋषि-महर्षियों के नामों से बहुत से गोत्र और उनकी शाखाएं प्रकाश में आई। 'जैनागम स्थानाङ्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 74