Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha Author(s): Labdhisuri Publisher: Jain Sangh Madras View full book textPage 3
________________ प्राक्कथन:__मुझ महाशयो ! जणावतां अत्यंत हर्ष थाय छे के, नीचे जणावेल प्रन्थमाळाना उत्पादक व्याख्यान-वाचस्पति, भागमप्रज्ञ शासन-प्रभावक जैनाचार्य श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराजना विद्वाम्-शिष्यरत्न पूज्यपाद् श्रीगंभीरविजयजी (हासमां-तेश्रोश्रीना पट्टप्रभावक भाचार्य श्रीविजयगंभीररिजी) महाराजश्रीनुं चातुर्मास मद्रास शहेरमा वि. सं. १९८४नी सालमा थ एल ते प्रसंगे पूज्यश्रीए सद्ज्ञान प्रचारार्थे उपदेश आपतां त्यांना श्रीसंघे ते उपदेश सहर्ष शिरोमान्य राखी सद्-ज्ञानप्रचारार्थे आर्थिक सहाय आपी हती. एमांथी अत्यन्त उपयोगी प्रन्यो बहार पाडनारी "श्री लब्धिसूरीश्वर-जैन ग्रन्थमाळा " नी शरुपात करवामां आवे छे. श्रा ग्रन्थमाळाना प्रथम मणीने जनता समक्ष रजू करतां जणाववायूँ के, जुदा जुदा स्थळोएथी विविध विषयक अनेक प्रन्थोन प्रकाशन थाय छे, छता पण नाजनी जैन जननाने अत्यन्त उपयोगी प्रन्थोनी जरूरीआत रहे छे, तेमां पण तात्कालिक उपयोगमा आवनार एवा अपूर्व-विधिविधानना प्रन्थोनी अतीव भावश्यकता होवाथी आ " जैन व्रतविधि " नामना ग्रन्थने प्रकाशन करवानी फरज पडी छे. अद्यावधि अनुकूळ संयोगोना भभावे अन्योना प्रकाशन कार्यमा जे विलंब थयो तेने जनता दरगुजर करशे एज अभ्यर्थना, मा ग्रन्थमा भार्थिक सहाय मळवा छता कीसन केम ? तो तेना जवाबमा जणाववानुं के ग्रन्थोनो दुरुपयोग न थाय अनेPage Navigation
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