Book Title: Jain Veero ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mitra Mandal

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Page 5
________________ दो शब्द | ग्नीय इतिहास अधकार में हैं और जैन इतिहास की उससे कुछ अच्छी दशा नही हैं । श्रलभ्य और श्रश्रुतपूर्व इतिहासिक सामिग्री से भरे हुये अनूठे जैनग्रन्थ श्राज भी जैन भण्डारों के अज्ञात कोनों में पड उनकी शोभा बढ़ा रहे है । अब भला बताइये, जैन धीरों का एक प्रमाणिक इतिहास लिखा जाय तो कैसे ? इतने पर भी जब मुझे जैनमित्रमण्डल दिल्ली के उत्साही मन्त्री जी ने एक ऐसा इतिहास लिखने का श्राग्रह किया, तो मै उनको टाल न सका। जितना कुछ मेरा श्रवतक का अध्ययन श्रीर अनुसन्धान था, उसी के बल पर मैने 'जैन चोरों के इतिहास' की एक रूपरेखा लिखे देना उचित समझा ! उसी निrय का यह फल पाठकों के सम्मुख उपस्थित है । भा मेरे कई उल्लेखों में, सम्भव है, अन्य विद्वान् सहमत न हो, कन्तु इस डर से में उनकी तीच्ण बुद्धि को सतुष्ट करने के झमेले में नहीं पटा है, क्यों कि ऐसा करने से पुस्तक सर्वसाधारण के मतलब की न रहतीं। हॉ, उन जैसे तार्किक पाठकों के सन्तोष के लिये मैं यह बता देना उचित समझता कि मैंने प्रत्येक आपत्तिजनक नई बात का प्रामाणिक वर्णन अपने 'संक्षिप्त जैन इतिहास' के दूसरे भाग में कर दिया है, जो प्रेम में है। वे चाहें तो उसे पढ कर श्रात्म सन्तुष्टि कर सकते हैं ।

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