Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 02
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 203
________________ श्रीजिनस्तोत्ररत्नकोशः। अवाप्य रागादिकसेवकान् परै वंशीकृतं नाथ यथा त्रयं जगत् । निरस्य चैतान्न तथा त्वया न तत् खसेवकं मामवमन्तुमर्हसि ॥ २७ ॥ ददासि चेत्त्वं खसमाधिवारिधे ममैककं बिन्दुमपीश तोषतः। ततः स्मराद्या मम केऽरयः कुतो ऽथवा भयं किं सुलभं न शर्म वा ॥ २८ ॥ तदर्थये खां प्रभुमुद्विजो भवा__दवाप्य रागाधरिभिः कदर्थितः । समाधियोगं मम देहि तं द्रुतं यतो विमुच्ये जिन भावशात्रवात् ॥ २९ ॥ जिनवर भवतैव दर्शितोऽयं निज इह कोऽपि स धर्मकल्पवृक्षः। निरवधि लभते शुभानि यस्मात् त्रिजगदपीष्टफलान्यनाद्यनन्तात् ॥३०॥

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