Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur
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( १२३ ) कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा दोहा-परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन ।
वन्दी परमानन्दमय, घट घट अन्तरलोन । १ । चौपई-निर्भय करन परम परधान,भवसमुद्र-जलतारण यान। शिव-मन्दिर अघहरण प्रनिन्द, बंदहु पासचरण अरविन्द ।। कमठमानभंजन वरवीर, गरिमासागर गुरण-गम्भीर । सुरगुर पार लहैं नहि जासु में अजान जंपो 'जसु तासु ।३। प्रभुस्वरूप अति अगम प्रथाह, पयों हमसे इह होय निवाह । ज्यो दिन अघ उलूको पोत',कहि न सके रविकिरन उदोत ।४ मोहहीन जान मनमाहि, तोह न तुम गुण वरण जाहिं । प्रलयपयोधि कर जल पीन',प्रगटहि रतन गिन तिहिं कीन ।५ तुम असंख्य निम्मंलगुणखानि,र्ग मतिहीन कहो निजबानि । ज्यों वालक निज वांह पसार, सागर परिमित कहै विचार ।६ जो जोगीन्द्र करहिं तप खेव, तऊ न जानहिं तुम गुरण भेद । भक्तिभाव मुझ मन अभिलाख,ज्यो पंछी बोलहिं निज भाख७ तुम जस महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-प्राधार । प्रावै पवन पद्मसर' होय, ग्रोषम तपत निवार सोय ।। तुम प्रावत भविजन घटमाहि.फर्मनिबन्ध शिथिल हो जाहि। ज्यो चंदनतरु बोलहि मोर, डरपि भुजङ्ग लगे चहुं पोर ।।। तुम निरखत जन दीनदयाल, सङ्कटते छूटहिं तत्काल । ज्यो पशु घेर लेहि निशिचोर, ते तज भागहि देखत भोर ।१० १ कहता ।२ बच्चा । ३ वमन । ४ कमल सरोवर से छूती हुई।
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