Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 430
________________ ( २०० ) छन्द भेद जानो नहीं, और गरमागरण सोय । केवल भक्ति सु धर्मकी, बसी सु हृदये मोय ।।५।। ता प्रभाव या सूत्रकी छन्द प्रतिज्ञा सिद्धि । भाई भविजन शोधियो, होवै जगत प्रसिद्धि ॥६॥ मगल श्री अरहत हैं, सिद्ध साधु वृप सार । तिननुति मनवचकायके, मेटौ विधन विकार ।।७।। छन्दवद्ध श्रीसूत्र के, किये शुद्ध अनुसार । मूल ग्रन्थको देखकर, श्रीजिन हृदये धार का कुवारमास की अष्टमी, पहिलो पक्ष निहार । अडसह अन सहल दो, सम्वतरीति विचार 18 जैसी पुस्तक मो मिली, तैसी छापी सोय । शुद्ध अशुद्ध जु होय कहुं,दोष न दो मोय ॥१०॥ ॥ इति श्रीभापा तत्त्वार्थमूत्र छन्दवद्ध सम्पूर्णम् ।। बड़ी अठाई प्राण' दिवायो न पापणी महियो करो न विचार । सिद्धचक्र व्रत भारावस्था, मन घर हो स्वामी निर्मल भाव यो वत नित मारावस्या ॥१॥ राय घरा दो ढीकरी रूपार वणी सम्प।। एक राय हम वोलिया, बच्चा कहो न थाका कार्डी विचार यो व्रत नित पारावस्या ।२॥ मैना हम बतलाया, मुन बाबुल का वोल ।। १ सौगन्ध, २ सखियो, ३ छोकरी-पुत्री, ४ रूप में बहुत सुन्दरी थी ५ पिता के वचन ।

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