Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 438
________________ (२०) (भदी) प्रव प्रा गया पावन काल, गे मत टाल भरे मब ताल महाजल वगे। बिन पग्मे श्री भगवन मेग जी तम्से । मैंने तज दई तोड मलोत, पलट गई पोन, मेग है गोन, मुझे जग तग्ना। निर्नेम नेम विन मुझे जगत क्या करना। भादो माम (भटी) मग्वि भादो भरे तालाब, मेरे चित गाव, कन्गी उछाह मे मोलह कारण । कर दश लक्षण के व्रत से पाप निवारण । कर रोट तोज उपवास पञ्चमी प्रकाम, अप्टमी वाम निगन्य मनाऊ, तपकर सुगन्ध दशमी का कर्म जलाऊं ॥ झवटे-मग्वि दुद्वर रम की धारा, तजि चार प्रकार पाहार । फर उन उग्र तर सारा, ज्या होय मेरा निस्तारा ॥ (झडी) मैं रत्नमय व्रत घरू, चतुर्दशी कर, जगत से तिरु , करु पखवाडा । मैं मबसे क्षिमाऊ दोप तजू सव राडा। मै साता तत्त्व विचार, कि गाऊ मल्हार, तजा ससार, तें फिर क्या करना । निर्नेम नेम विन हमे जगत क्या करना। पासोज मास (झडो) सखि प्रागया मास कुवार, लो भूषण तार, मुझे गिरनार की दे दो आज्ञा, मेरे प्राणिपात्र आहार की है प्रतिज्ञा। लो तार ये चूडामणि, रतन की कणी, सुनो सब जणी खोल दो वैनी, मुझको अवश्य परभात ही दीक्षा लेनी॥ झर्व-मेरे हेतु कमण्डल लामो, इक पौछी नई मगावो । मेरा मत ना जी भरमावो, मत सूते कर्म जगावो ।

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