Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 415
________________ ( १८५ ) चार प्रकारसु दानको दायक इह विध सातौ शीलसु पागी । २२ मरणके अंत सल्लेखन धारत, होय यतीसम सो वडभागी १४ चौपाई २३ जिनवानी मे शका करें, इह पर भव सुखवांछा घर । रोगी मुनिको देखि गिलान, मिध्यावृष्टोगुण सनमान | १५ | वचनद्वार ताकी युति करें, प्रतीचार पन समिति धरै । २४ व्रतशीलनमे क्रम क्रम जान, पांव पांच जे फहे बखान।१६। २५ नीवनि वाघे ताडे सोय, फाम नाक छेदे जो कोय । मान अधिक भार जु घरे, प्रन्नपान अवरोधन करें | १७| २६ मिथ्या को उपदेश सु जान, गूढबात परको व्याख्यान । झूठो लेख तनो विवहरं, परको मूसधरोहर हरं । १८ । मन्य परायो प्रगट जोय, श्रतीचार पन सतके सोय । चोरीको २७उपदेश सु देय, वस्तु घुराई मोल सु लेय ॥१६॥ राजविरोध सु काज कराय. घाटि देय श्ररु वाढि लहाय । वस्तु खरी मे खोटी डार, व्रत प्रचार्य पाच प्रतिचार | २०| २८ पर विवाह काररण उपवेश, श्रौर कुशीलीस्त्री वेष | परस्त्री ब्याही जो होय, तथा और अन-व्याही सोय |२१| तिनको मुख प्ररु श्रङ्ग निहार, तथा प्रनङ्गक्रोडा निरधार । तीव्र काम निज वनिता भोग, ब्रह्मचर्य प्रतिचार प्रयोग | २२| २६ खेत और घर रूपो जान, सोनो पशु अरु श्रन्न बखान । दासी वासरु कपडा प्रावि, इनके बहुत प्रमारण सु बाद |२३| प्रतीचार अपरिग्रह पांच, इह विघ सूत्र कहो हे सांच ।

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