Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ ( १९७) उत्तम श्रुति दश पूरव कही, केवलज्ञान विराधन सही। सब तीर्थङ्कर बारे माहि, पांचों मुनि निम्रन्थ कहाय । जान भालिगी व्यवहार, पांचो को सौ है प्राचार ।। लेश्या श्री उपपाद स्थान, इनतै मुनि सब पृथक् बखान ।। दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । पवम अध्याय पूरण भयो, मिथ्यामति को शूल ।। ॥ इति नवमोध्याय ॥ सर्वच्या १ लख मोहनि कर्मको नाश भयो,अरु ज्ञान दर्श पावर्षी जानो अन्तगय इन चारकै क्षयतै केवलज्ञान सु होत बखानो। २ बषके हेतु मिथ्यादि कहे, तिनकोसु प्रभाव भलीविधि मानो। निर्जरकम समस्त खिरे, सो मोक्षको मूल सो मोक्ष कहानो।। पद्धरी-छन्द ३ उपर्शामक प्रादि भव्यत्व अत जे चार भाव क्षय मोहत ४ अर अन्य भाव क्षय सबै होय,केवल सम्यक्त रु ज्ञान जोयर केवलदर्शन सिद्धत्व जान, इन भेदन मोक्ष लखौ सुजान । यह जीव करमक्षय के अनंत, ऊचे को ५ जाय सु लोक अंता३ ६जिय उद्धं गमनको निमित्त जान, पूरब प्रयोग सो चित्तठान फिर कर्मयोगतै रहिन मान, अरु कर्मबन्ध के क्षय बखान ।४। प्रघ अर्ध्व गमन को भाव जोय, जे निमित्त सूत्र भाषो है सोय लखकर ७ कुम्हारको चरीति, पूरब प्रयोग जानो सुमीत । कर लेप तोमरीपै सु सार, जल माहिं होय ताको निखार । तब लेपरहित ऊपर तिराय, त्यो ही संगति गत फर्म भाय॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443