Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 423
________________ ( १६३ ) सु लहै । कायकलेश शरीर को कष्ट दिये इह षट तप बाहर परकाशा२२ अब अन्तरग के भेद सुनो षट तिनसो वसुविध कर्म डरो है । २० दोष निवारन चित्तकी शुद्धता प्रायश्चित तसु नाम घरो है गुणगौरव आदरभाव करे सो विनयवृत्त सोई विनय भरी है रोगसहित मुनि तिनकी सेवा वैय्याव्रत तसु नाम परो है | २३ | स्वाध्यायकर ज्ञान बढावत श्रातम हित चितमाह घरो है । तजि संकल्प शरीर है मेरो यह ध्युत्सगं सु नाम परो है । तत्त्व को चितन ध्यान कहो षट भेद सु तप अन्तरंग कहो है । २१ भेद नवौ चतु दश पन दो तप ध्यानसु पहिले पहल ठयो है२४ चोपई २२ निष्कपटी गुरु श्रागे हैं, श्रालोचन तसु नाम सामायिकमे दुष्कृत होय, करै शुद्ध प्रतिक्रमरण सु जोय ॥२५॥ प्रलोचन प्रतिक्रमण सु दोय, तनुभय नाम कहावे या विचार सु होय, ताको नाम विवेक सुजोय |२६| मनवचकाय त्याग व्युत्सर्ग, बारह विध तप जान उपवासादि कररण है छेद, संघत्याग परिहार सु इस्थापन दृढता है धर्म, नौ विभ कहो प्रायश्चित मर्म । २३ दर्श ज्ञान चारित्र श्राचार, इनको विनय शुद्ध मनधार२५ २४ व्रत श्राचर्न करं श्राचार, पढे पढावे पाठक सार । उपवासादि सुतप है जान, शैक्ष शास्त्र अभ्यास करान |२६| रोगाविक पीडित सु गिलान, मुनिसमूह सोई गरण मान । शिष्यसमूह दीक्षित श्राचार, सोई कुल को अर्थ निहार ॥३०॥ सोय । निसर्ग । भेद |२७|

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