Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 411
________________ । १८ चौपई ५ इन्द्री पांच कषाय जु चार, प्रव्रत भेद सो पांच निहार । किया भेद पच्चीस बखान, जे सब माधव भेद सुजान ॥३॥ ६ तीन मद भावको मान, भाव विशेष जान उनमान । ७ आश्रय जीव अजीव निसार, या विध सूत्र कहो निरधार४ ८ जोवघात कृतकरन अभ्यास, और होय प्रारम्भ सु तास । मन वच काय योग अनुसरे, पर उपदेश पाप जो करे ।। परहिंसा अनमोद करन्त, चार कषाय विशेष धरन्त । तीन तीन अरु तीन बखान, चार अन्त मिलि हिंसामान ।६। ६ दोय भेद निर्वर्तना जान, चार भेद निक्षेप सु मान । दो सयोग रु तीन निसर्ग, ये सब भेद सु प्राश्रव वर्ग ॥७॥ सवैय्या तेईसा १० दर्शनशान के धारकको भर दर्शन ज्ञान बडाई न भावे । जानत हैं गुण नीकी तरह अरु पूछते गुण नाहि बतावै ॥ मांगे न पोथी देय कभी विद्वान पुरुषसो फेर सु राखे । गुणवानको निर्गुण मूढ कहै सो दर्शन ज्ञान अवर्ण वढावै ।। ११ दुख अरु शोक पुकार कर अरु माथा धुने अरु प्रांसू डार ताप कर परकारन होय सो जान असाता पाश्रव पारे । १२ जीवनमाहि दयाल व्रती अरु वत्तिनि दान देय सो भावं प्रशुभ निषेधके हेतको उद्यम रक्षा करन छकाय सुहावै ।। इन्द्रो निरोध सराग सु संयम चितन क्रोध कर नहिं लोभा। इह विध साताको बन्ध लखौ यह पाषव बन्धकी जावसु शोभा

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