Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 408
________________ ( १७८ ) पचम जान विमान वसै ते तदभव मुक्तिको पथ निहार ॥ २७ नारकी देव कहें उपपादिक और मनुष्य सु छोडि बताये। शेष सु जीव तिर्यच लखो इह भांति सु सूत्र मे भेद जताये । १६ चोपई २८ असुरकुमार आयुवल जान, सागर एक कही परमान । तीन पल्य लख नाग कुमार, ढाई पत्य सुपररणको सार ॥१७॥ द्वीपकुमार पल्य दो जान, डेढ पल्य शेषन परिमान । यह विध उत्तम श्रायु समान, भवनवासि देवनकी जान | १८ | २६ कछू अधिक दो सागर सार सऊधर्म ईशान मकार । ३० सनतकुमार महेन्द्र विस्यात, सागर सातसु जानो भ्रात १६ ३१ जुगल तीसरे दशकी जान, चौथे जुगल सु चौदह मान । जुगल पाचवें सोलह लेउ, छटे अठारह सागर देउ | २०| जुगल सातवें वीस निहार, बाइस जुगल आठ मे धार । ३२ नवग्रीवक इकतीस बखान, नवें नवोत्तर बत्तिस मान२१ पंच पचोत्तर तेतिस आयु. ३२ जघन्य पत्य किचित् अधिकायु ३४ प्रथम श्रायु उतकृष्टि कहान, सो जघन्य गले मे जान२२ ३५ यही भाति नरकनके माहि, श्रायु मे जानो शक नाहि । नरक दूसरे ते पहिचान, ऊपरको परिमान सुजान ॥ २३ ॥ ३६ प्रथम नरक को जघन प्रमान, वर्ष हजार दशकको जान यही ३७भवन ३८व्यन्तरके माहि, ३६ व्यन्तर प्रायु उतकृष्टी प य किचित् श्रधिक पल्य परिमान, ४०ज्योतिष याही भांति सुजान ४१ पल्य आठवें भाग निहार, जघन्य आयुबल ज्योतिषधार । ४२ सागर प्राठ लोकातिक देव, प्रायु कही सबकी इह भव

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