Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 8
________________ विषय ११७ क्रम पृष्ठ १५ क्या सर्व सम्यग्दृष्टियो की स्वभावरूप अवस्था होती है ११६ १६ निश्चय सम्यक्त्व ४ से १४वें तक सर्व को समान है ११७ १७. मेरु समानादि परमागम के अभ्यास से सम्यग्दर्शन १८ सम्यग्दर्शन रत्नगिरि का शिखर है। ११७ १६. सम्यग्दृष्टि शुद्ध है वही निर्वाण को प्राप्त होता है २० श्रेष्ठतर उपदेश, जन्म-मरण का नाश करने वाला है ११७ २१. धर्मों मे सम्यग्दर्शन अधिक है ११७ २२. प्रथम श्रावक को क्या करना ११७ २३. सम्यक्त्व अमूल्य मणी के समान है ५४. सम्यक्त्व का माहात्म्य ११८ २५. सम्यग्दर्शन आत्मा मे स्थिति इसलिए आत्मा ही शरण है ११८ २६ आत्मा ही शरण है उसका क्या कारण है ? ११८ २७ आत्मा ही शरण है क्योंकि वह भूतार्थ है ११८ २८. शुद्ध का क्या अर्थ है ? २६ आत्माश्रित निश्चय-पराश्रित व्यवहार ३०. पराश्रय बन्ध-आत्माश्रित-मोक्ष होता है ११६ ३१. क्या शुद्ध आत्मा ही दर्शन है ? ११६ ३२. शुद्ध आत्मा ही दर्शन है क्योकि वह आत्मा के आश्रय से है १२० ३३. जीव का स्वभाव एक देश रहने मे कोई विरोध नही १२० ३४. सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने पर जीव को गुणीभूत की श्रद्धा होती है १२० ३५ तीनो सम्यक्त्व मे सम्यक्त्व का एकत्वपना है। १२० ३६. क्षायोपशमिक क्षायिक की अपेक्षा सुलभ है १२१ ३७ ज्ञान सारभूत है उसकी अपेक्षा श्रद्धा सार है ३८. सम्यक्त्व की महिमा क्योकि उससे ज्ञान की प्राप्ति होती ३९. चरणानुयोग मे सम्यक्त्व की महिमा १२१ ११६ ११६ १२१

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