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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास की प्रशस्ति में भी इस चैत्य का उल्लेख प्राप्त होता है ।२१ तपागच्छीय जिनहर्षगणि द्वारा रचित वस्तुपालचरित [रचनाकाल वि० सं० १४९७/ई० सन् १४४१] के अनुसार तेजपाल ने इस जिनालय के रंगमण्डप का जीर्णोद्धार कराया था।२२
प्रभावकचरित के अनुसार अणहिलपुरपत्तन में भी एक मोढचैत्य था जिसमें बप्पभट्टिसूरि द्वारा जिनप्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी थी।२३
मण्डली [वर्तमान मांडल] में भी वस्तुपाल के समय एक मोढचैत्य था । वस्तुपालचरित के अनुसार उसने [या उसके लघुभ्राता ने] यहां मूलनायक की प्रतिमा निर्मित करायी थी।४।।
जैसा कि यहां पीछे कहा जा चुका है कि मोढवणिक ज्ञाति भी मोढेरा से ही अस्तित्व में आयी । वि० सं० की ११ वीं शती के प्रारम्भ से वि० सं० की १७वीं तक के कई शिलालेखों और ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियों में इस ज्ञाति का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि इस ज्ञाति के श्रावक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विभिन्न गच्छों में बंटे हुए थे । १६वीं शती में श्रीमद्वल्लभाचार्य के प्रभाव से अनेक मोढ परिवारों ने वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया । १७वीं शती में श्वेताम्बर आम्नाय में लोंकाशाह का उदय हुआ, इनके द्वारा उद्भूत लोकांगच्छ से निकले अमूर्तिपूजक स्थानकवासी सम्प्रदाय में भी अनेक मोढ परिवार दीक्षित हो गये । आज भी पश्चिमी भारत और मध्यभारत में हजारों मोढ परिवार विद्यमान हैं जो वैष्णव और स्थानकवासी परम्परा से सम्बद्ध हैं ।२५ मोढ ज्ञाति द्वारा अपने परम्परागत धर्म के परिवर्तन के परिणामस्वरूप न केवल मोढचैत्य और मोढगच्छ बल्कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय भी समाप्त हो गया। संदर्भसूची:
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