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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास "सं० १२२७ वैशाख सुदि ३ गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्राविकया आत्मीय पुत्र लूणदे श्रेयोर्थं चतुर्विंशति पट्टः कारितः ॥ श्रीमोढगच्छे बप्पभट्टिसूरिसंताने जिनभद्राचार्यैः प्रतिष्ठितः ॥"
__ इस लेख में मोढगच्छीय बप्पभट्टिसूरि के संतानीय अर्थात् उनकी परम्परा में हुए जिनभद्राचार्य का चतुर्विंशतिपट्ट के प्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख है।
मोढगच्छ से सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत दो उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनमें प्रथम साक्ष्य है वि० सं० १३२५ की कालिकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की दाताप्रशस्ति - जिसमें मोढगुरु हरिप्रभसूरि का उल्लेख है। द्वितीय साक्ष्य है राजगच्छीय आचार्य प्रभाचन्द्रविरचित प्रभावकचरित [रचनाकाल वि० सं० १३३४ /ई० सन् १२७८] के अन्तर्गत "बप्पभट्टिसूरिचरित", जिसमें पाटला स्थित नेमिनाथजिनालय के नियामक के रूप में मोढगच्छीय सिद्धसेनसूरि का उल्लेख है।"
प्राध्यापक मधुसूदन ढांकी के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन चैत्यवासी थे और वे जिनालयों से संलग्न उपाश्रयों में रहा करते थे । मोढेरा इनका प्रधान केन्द्र था । इसके अतिरिक्त पाटला, धंधूका, अणहिलपुरपत्तन और मांडल में भी इनके चैत्य थे।
मोढेरा जैन तीर्थ के रूप में यथेष्ट प्राचीन समय से ही प्रसिद्ध रहा है । मोढब्राह्मण और मोढवणिक ज्ञाति की उत्पत्ति यहीं से हुई। यशोभद्रसूरिगच्छीय सिद्धसेनसूरिविरचित सकलतीर्थस्तोत्र [रचनाकाल ई० सन् १०७५ प्रायः] में जैनतीर्थस्थानों की सूचि में इस स्थान का उल्लेख है। प्रबन्धग्रन्थों में यहां स्थित महावीर स्वामी के जिनालय का उल्लेख प्राप्त होता है जो मोढ ज्ञाति का प्रधान चैत्य और संभवतः इस ज्ञाति से भी प्राचीन माना जाता है। प्रभावकचरित में बप्पभट्टसूरि द्वारा यहां दर्शनार्थ आने और सिद्धसेनसूरि द्वारा यहां वन्दन करने का
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