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वायडगच्छ
१२११ शती) में मंत्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट के संदर्भ में वायटस्थित जीवन्तस्वामी, मुनिसुव्रत और महावीर के मन्दिरों का उल्लेख मिलता है । अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरिकृत अष्टोत्तरीतीर्थमाला (ई० सन् १२३७) में भी इसी प्रकार का विवरण प्राप्त होता है । इससे पूर्व संगमसूरि के चैत्यपरिपाटीस्तवन (ई० सन् १२वीं शताब्दी) में वायड का महातीर्थ के रूप में वर्णन मिलता है। साधारणांक सिद्धसेनसूरि द्वारा रचित सकलतीर्थस्तोत्र (प्रायः ई० सन् १०६०-७५) में भी इस स्थान का एक जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख
प्रभावकचरित (वि० सं० ११३४ / ई० सन् १२७८) के अनुसार विक्रमादित्य के मंत्री लिम्बा द्वारा यहां स्थित महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार कराया गया१३ । वहां यह भी कहा गया कि उसने राशिल्लसूरि के शिष्य और जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य जीवदेवसूरि को उक्त जिनालय का अधिष्ठाता नियुक्त किया । प्रबन्धकोश (वि० सं० १४०५ / ई० सन् १३४९) में भी यही बात कही गयी है किन्तु वहाँ मंत्री का नाम निम्बा बतलाया गया है जो अक्षरान्तर मात्र है।
प्रबन्धग्रन्थों के उक्त उल्लेखों में वर्णित कथानक में विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त 'द्वितीय' विक्रमादित्य - ईस्वी सन् ३७५-४१२) के काल की कल्पना की गयी है जिसको तो हम स्वीकार नहीं कर सकते फिर भी इतना संभव हो सकता है कि नवीं शताब्दी के किसी प्रतिहार नरेश के प्राकृत नामधारी मंत्री निंबा या लिंबा ने उक्त जिनालय का निर्माण कराया होगा और यही तो जीवदेवसूरि का संभवित समय भी है।
प्रभावकचरित' में वायडगच्छ के प्रारम्भिक आचार्यों के सम्बन्ध में प्राप्त विवरण, जिसका एक अंश कथानक ही है, से ज्ञात होता है कि वायड नामक ग्राम में धर्मदेव नामके एक श्रेष्ठी थे। उनके बड़े पुत्र का नाम महीधर और छोटे पुत्र का नाम महीपाल था। महीधर ने श्वेताम्बर जैनाचार्य जिनदत्तसूरि के दीक्षा ग्रहण कर ली और राशिल्लसूरि के नाम से विख्यात
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