Book Title: Jain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 02
Author(s): Shivprasad
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat

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Page 686
________________ १३५४ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास जयकलश एवं उदयसागरसूरि (वि० सं० १५५६जयकुशल ई० स० १५०० में (कातंत्रव्याकरण कातंत्रव्याकरणदुर्गसिंहवृत्ति दुर्गसिंहवृत्तिअवचूर्णि अवचूर्णि की प्रशस्ति के रचनाकार) में लिपिकार के रूप में उल्लिखित) शीलभद्रसूरि (वि० सं० १५७७) 'तृतीय' प्रतिमालेख इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विक्रम संवत् की चौदहवी शताब्दी के प्रथम चरण से लेकर वि० संवत् की सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चरण (लगभग २५० वर्षों तक) हारीजगच्छ की विद्यमानता सिद्ध होती है । शीलभद्रसूरि 'प्रथम' और शीलभद्रसूरि 'द्वितीय' तथा महेश्वरसूरि इस गच्छ के अन्य मुनिजनों की अपेक्षा विशेष प्रभावशाली प्रतीत होते हैं क्योंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित कई जिनप्रतिमायें मिली हैं । विक्रम संवत् की १६वीं शती के पश्चात् इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की दुर्लभता को देखते हुए यह माना जा सकता है कि इसके पश्चात् इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा। यह गच्छ कब, किस कारण एवं किस गच्छ या कुल से अस्तित्व में आया, इसके आदिम आचार्य कौन थे? साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न अभी अनुत्तरित ही रह जाते हैं। संदर्भ सूची: १. रसिकलाल छोटालाल परीख एवं हरिप्रसाद गंगाशंकर शास्त्री, गुजरातनो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास, भाग १, अहमदाबाद १९७२ ई० स०, पृष्ठ ३७३. श्री अमृतलाल मगनलाल शाह, संपा० श्रीप्रशस्तिसंग्रह, श्री जैन साहित्य प्रदर्शन, श्री देशविरति धर्माराजक समाज, अहमदाबाद वि० सं० १९९३, भाग २, पृष्ठ ५७; प्रशस्ति क्रमांक २२६. ३. वही, पृष्ठ ५७, प्रशस्ति क्रमांक २२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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