Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 16
________________ एक ऐसी भी मान्यता विद्वानों में प्रचलित है कि जैनों ने अपने २४ तीथंकरों की नामावलि की पूर्ति प्राचीनकाल में भारत में प्रसिद्ध उन महापुरुषों के नामों को लेकर की है जो जैनधर्म को अपनानेवाले विभिन्न वर्गों के लोगों में मान्य थे। इस विषय में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि ये महापुरुष यज्ञों की-हिंसक यज्ञों की प्रतिष्ठा करनेवाले नहीं थे किन्तु करुणा की और त्याग-तपस्या की तथा आध्यात्मिक साधना की प्रतिष्ठा करनेवाले थे-ऐसा माना जाय तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं हो सकती। जैनपरंपरा में ऋषभ से लेकर भ• महावीर तक २४ तीर्थंकर माने जाते हैं उनमें से कुछ ही का निर्देश जैनेतर शास्त्रों में है। तीर्थंकरों की जो कथाएँ जैनपुराणों में दी गई हैं उनमें ऐसी कथाएं भी हैं जो अन्यत्र भी प्रसिद्ध हैं, किन्तु नामान्तरों से। अतएव उनपर विशेष विचार न करके यहाँ उन्हीं तीर्थंकरो पर विशेष विचार करना है जिनका नामसाम्य अन्यत्र उपलब्ध है या जिनके विषय में बिना नाम के भी निश्चित प्रमाण मिल सकते हैं। बौद्ध अंगुत्तरनिकाय में पूर्वकाल में होनेवाले सात शास्ता वीतराग तीर्थंकरों की बात भगवान् बुद्ध ने कही है—“भूतपुप्वं भिक्खवे सुनेत्तो नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो .. मगपक्ख - 'अरनेमि.. कुद्दालक... हस्थिपाल... "जोतिपाल .अरको नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो। अरकस्स खो पन, भिक्खवे, सत्थुनो अनेकानि सावकसतानि अहेसुं" ( भाग ३. पृ० २५६-२५७ )। ___इसी प्रसंग में अरकसुत्त में अरक का उपदेश कैसा था, यह भी भ. बुद्धने वर्णित किया है। उनका उपदेश था कि “अप्पकं जीवितं मनुस्सानं परित्तं, लहुकं बहुदुक्खं बहुपायासं मन्तयं बोद्धव्वं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नस्थि जातस्स अमरणं' (पृ०२५७)। और मनुष्यजीवन की इस नश्वरता के लिए उपमा दी है कि सूर्य के निकलने पर जैसे तृणान में स्थित ( घास आदि पर पड़ा ) प्रोसबिन्दु तत्काल विनष्ट हो जाता है वैसे ही मनुष्य का यह जीवन भी शीघ्र मरणाधीन होता है। इस प्रकार इस अोसबिन्दु की उपमा के अलावा पानी के बुद्बुद और पानी में दंडराजी आदि का भी उदाहरण देकर जीवन की क्षणिकता बताई गई है ( पृ० २५८ )। ___ अरक के इस उपदेश के साथ उत्तराध्ययनगत 'समयं गोयम मा पमायए' उपदेश तुलनीय है ( उत्तरा. अ. १०)। उसमें भी जीवन की क्षणिकता १. Doctrine of the Jainas, p. 28. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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