Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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( ५४ ) चाहिए। निशीथ आचारांग की चूला है और किसी काल में उसे प्राचारांग से पृथक् किया गया है। उस पर भी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि प्राकृत टीकाएं हैं। धवला ( पृ० ६६ ) में अंगबाह्य रूप से इसका उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई ची उसमें नहीं है अतएव उसके विच्छेद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। डा० जेकोबी और शुबिंग के अनुसार प्राचीन छेदसूत्रों का समय ई० पू० चौथी का अन्त और तीसरी का प्रारंभ माना गया है वह उचित ही है।' जीतकल्प प्राचार्य जिनभद्र को कृति होने से उसका भी समय निश्चित ही है। यह स्वतंत्र ग्रन्य नहीं किन्तु पूर्वोक्त छेद ग्रन्थों का साररूप है। प्राचार्य जिनभद्र के समय के निर्धारण के लिए विशेषावश्यक की जैसलमेर की एक प्रति के अन्त में जो गाथा दी गई है वह उपयुक्त साधन है। उसमें शक संवत् ५३१ का उल्लेख है। तदनुसार ई० ६०६ बनता है। उससे इतना सिद्ध होता है कि जिनभद्र का काल इससे बाद तो किसी भी हालत में नहीं ठहरता। गाथा में जो शक संवत् का उल्लेख है वह संभवतः उस प्रति के किसी स्थान पर रखे जाने का है। इससे स्पष्ट है कि वह उससे पहले रचा गया था। अतएव इसी के आस-पास का काल जीतकरूप की रचना के लिए भी लिया जा सकता है।
महानिशीथ का जो संस्करण उपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र के द्वारा उद्धार किया हुआ है। अतएव उसका भी वही समय होगा जो आचार्य हरिभद्र का है। प्राचार्य हरिभद्र का समयनिर्धारण अनेक प्रमाणों से प्राचार्य जिनविजयजी ने किया है और वह है ई० ७०० से ८०० के बीच का।
मूलसूत्रों में दशवकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की है और यह तो साधुओं को नित्य स्वाध्याय के काम में आता है अतएव उसका विच्छेद होना संभव नहीं था। अपराजित सूरि ने सातवीं-आठवों शती में उसकी टीका भी लिखी थी। उससे पूर्व नियुक्ति, चूणि आदि टीकाएं भी उस पर लिखी गई हैं। पांचवीं-छठी शती में होने वाले प्राचार्य पूज्यपाद ने ( सर्वार्थसिद्धि, १.२० ) भी दशवकालिक का उल्लेख किया है और उसे प्रमाण मानना चाहिए ऐसा भी कहा है। उसके विच्छेद की कोई चर्चा उन्होंने नहीं की है। धवला (पृ० ६६) में भी अंगबाह्य रूप से दशवकालिक का उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है। दशवकालिक में चूलाएं बाद में जोड़ी गई हैं यह निश्चित है किन्तु उसके जो दस अध्ययन हैं जिनके आधार पर उसका नाम निष्पन्न है वे तो मौलिक ही हैं। ऐसी परिस्थिति में उन दस अध्ययनों के कती तो शय्यंभव हैं ही और
१. डोक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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