Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 48
________________ ( ५६ ) ये भद्रबाहु अधिक संभव यह है कि द्वितीय हों। यदि यह स्थिति सिद्ध हो तो उनका समय पांचवी शताब्दी ठहरता है। ___ नन्दी सूत्र देववाचक की कृति है अतएव उसका समय पांचवीं-छठी शताब्दी हो सकता है। अनुयोगद्वार सूत्र के कर्ता कौन हैं यह कहना कठिन है किन्तु इतना कहा जा सकता है कि वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या है अतएव उसके बाद का तो है ही। उसमें कई ग्रन्थों के उल्लेख हैं। यह कहा जा सकता है कि वह विक्रम पूर्व का ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ऐसा है कि संभव है उसमें कुछ प्रेक्षेप हुए हों। इसकी एक संक्षिप्त वाचना भी मिलती है। प्रकीर्णकों में से चउसरण, पाउरपच्चक्खाग और भत्रपरिन्ना--ये तीन वीरभद्र की रचनाएं हैं ऐसा एक मत है। यदि यह सच है तो उनका समय ई० ६५१ होता है। गच्छाचार प्रकीर्णक का आधार है-महानिशीथ, कल्प और व्यवहार । अतएव यह कृति उनके बाद की हो इसमें संदेह नहीं है।' वस्तुस्थिति यह है कि एक-एक ग्रन्थ लेकर उसका बारीकी से अध्ययन करके उसका समय निर्धारित करना अभी बाकी है। अतएव जबतक यह नहीं होता तबतक ऊपर जो समय की चची की गई है वह कामचलाऊ समझी जानी चाहिए। कई विद्वान् इन ग्रन्था के अध्ययन में लगें तभी यथार्थ और सर्वग्राही निर्णय पर पहुंचा जा सकेगा। जबतक ऐसा नहीं होता तबतक ऊपर जो समय के बारे में लिखा है वह मान कर हम अपने शोधकार्य को आगे बढ़ा सकते हैं । आगम-विच्छेद का प्रश्न : व्यवहार सूत्र में विशिष्ट प्रागम-पठन की योग्यता का जो वर्णन है ( दशम उद्देशक ) उस प्रसंग में निर्दिष्ट आगम, तथा नंदी और पाक्षिकसूत्र में जो आगम-सूची दी है तथा स्थानांग में प्रासंगिक रूप से जिन ागमा का उल्लेख है-इत्यादि के आधार पर श्री कापडिया ने श्वेताम्बरों के अनुसार अनुपलब्ध प्रागमों की विस्तृत चर्चा की है ।२ अतएव यहाँ विस्तार अनावश्यक है। निम्न अंग आगमों का अंश श्वेताम्बरों के अनुसार सांप्रतकाल में अनुपलब्ध हैं : १ आचारांग का महापरिज्ञा अध्ययन, २ ज्ञाताधर्मकया की कई कथाएं, ३ प्रश्नव्याकरण का वह रूप जो नंदी, समवाय आदि में निर्दिष्ट है तथा दृष्टिवाद-इतना अंश तो अंगों में से विच्छिन्न हो गया यह स्पष्ट है। अंगों के जो परिमाण निर्दिष्ट हैं उसे देखते हुए और यदि वह वस्तुस्थिति का बोधक है तो १. कापडिया-केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ५२. २. केनोनिकल लिटरेचर, प्रकरण ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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