Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 58
________________ यहाँ यह भी बता देना जरूरी है कि पंडितजी ने अपनी पीठिका में जिन "तवनियमनाण'' इत्यादि नियुक्ति की दो गाथानों को विशेषावश्यक से उद्धृत किया है (पीठिका पृ० ५३० की टिप्पणी ) उनकी टीका तो पंडितजी ने अवश्य ही देखी होगी-उसमें आचार्य हेमचन्द्र स्पष्टरूप से लिखते हैं "तेन विमलबुद्धिमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो”-विशेषा० टीका. गा० १०९५, पृ० ५०२ । ऐसा होते हुए भी पंडितजी को श्वेताम्बरों में सूत्र के रचयिता के रूप में खास गणधर के नाम का उल्लेख नहीं मिला-यह एक आश्चर्यजनक घटना ही है। और यदि पंडितजी का मतलब यह हो कि किसी खास = एक ही व्यक्ति का नाम नहीं मिलता तो यह बता देना जरूरी है कि श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों के मत से जब सभी गणधर प्रवचन की रचना करते हैं तो किसी एक ही का नाम तो मिल ही नहीं सकता। ऐसी परिस्थिति में इसके आधार पर पंडितजी ने श्रुतावतार की परंपरा में दोनों संप्रदायों के भेद को मान कर जो कल्पनाजाल खड़ा किया है वह निरर्थक है। पं० कैलाशचन्द्रजी मानते हैं कि श्वेताम्बर-वाचनागत अंगज्ञान सार्वजनिक है "किन्तु दिगंबर-परंपरा में अंगज्ञान का उत्तराधिकार गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में ही प्रवाहित होता हा माना गया है। उसके अनुसार अंगज्ञान ने कभी भी सार्वजनिक रूप नहीं लिया।"-पीठिका पृ० ५४३ । यहाँ पंडितजी का तात्पर्य ठीक समझ में नहीं आता। गुरु अपने एक ही शिष्य को पढ़ाता था और वह फिर गुरु बन कर अपने शिष्य को--इस प्रकार की परंपरा दिगंबरों में चली है-क्या पंडितजी का यह अभिप्राय है ? यदि गुरु अनेक शिष्यों को पढ़ाता होगा तब तो मंगज्ञान श्वेताम्बरों की तरह सार्वजनिक हो जायगा । और यदि यह अभिप्राय है कि एक ही शिष्य को, तब शास्त्रविरोध पंडितजी के ध्यान के बाहर गया हैयह कहना पड़ता है। षट्खंडागम की धवला में परिपाटी और अपरिपाटी से सकल श्रुत के पारगामी का उल्लेख है। उसमें अपरिपाटी से—'अपरिवाडिए पुण सयलसुदपारगा संखेज्जसहस्सा" (धवला पृ० ६५) का उल्लेख है-इसका स्पष्टीकरण पंडितजी क्या करेंगे? हमें तो यह समझ में आता है कि युगप्रधान या वंशपरंपरा में जो क्रमशः आचार्य-गणधर हुए अर्थात् गण के मुखिया हुए उनका उल्लेख परिपाटीक्रम में समझना चाहिए और गण के मुख्य प्राचार्य के अलावा जो श्रुतधर थे वे परिपाटीक्रम से संबद्ध न होने से अपरिपाटी में गिने गये। वैसे अपरिपाटी में सहस्रों की संख्या में सकल श्र तधर थे। तो यह अंगभूत श्वेतांबरों की तरह दिगंबरों में भी सार्वजनिक था ही यह मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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