Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 55
________________ जो परिमाण बताया गया है उसे देखते हुए श्वेताम्बरों के अंग आगम एकदेश ही सिद्ध होते हैं। ये आगम आधुनिक दिगम्बरों को मान्य हों या न हों यह एक दूसरा प्रश्न है। किन्तु श्वेतांबरों ने जिन अंगों को संकलित कर सुरक्षित रखा है उसमें अंगों का एक अंश-बड़ा अंश विद्यमान है--इतनी बात में तो शंका का कोई स्थान होना नहीं चाहिए। साथ ही यह भी स्वीकार करना चाहिए कि उन मंगों में यत्र-तत्र प्रक्षेप भी हैं और प्रश्नव्याकरण तो नया ही बनाया गया है। इस चर्चा के प्रकाश में यदि हम निम्न वाक्य जो पं० कैलाशचन्द्र ने अपनी पीठिका में लिखा है उसे निराधार कहें तो अनुचित नहीं माना जायगा। उन्होंने लिखा है-"और अन्त में महावीरनिर्वाग से ६८३ वर्ष के पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया।" पीठिका पृ० ५१८ । उनका यह मत स्वयं धवला और जयधवला के अभिमतों से विरुद्ध है और अपनी ही कल्पना के आधार पर खड़ा किया गया है। श्रुतावतार: श्रु तावतार की परंपरा श्वेतांबर-दिगंबरों में एक सी ही है किन्तु पं० कैलाशचन्द्रजी ने उसमें भी भेद बताने का प्रयत्न किया है अतएव यहाँ प्रथम दोनों संप्रदायों में इसी विषय में किस प्रकार ऐक्य है, सर्वप्रथम इसकी चर्चा करके बाद में पंडितजी के कुछ प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया जाता है। भ० महावीर शासन के नेता थे और उनके अनेक गणधर थे इस विषय में दोनों संप्रदायों में कोई मतभेद नहीं। भगवान् महावीर या अन्य कोई तीर्थंकर अथं का ही उपदेश देते हैं, सूत्र की रचना नहीं करते इसमें भी दोनों संप्रदायों का ऐकमत्य है। श्रुतावतार का क्रम बताते हुए अनुयोगद्वार में कहा गया है "अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते। तं जहा अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे । तित्थगराणं अत्यस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तरस अत्तागमे अत्यस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाग सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे। तेण परं सुत्तस्स वि अत्यस्स वि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे ।"-अनुयोगद्वार सू० १४४, पृ० २१६ । इसी का पुनरावर्तन निशीथचूणि (पृ० ४) आदि में भी किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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