Book Title: Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Prastavana
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 47
________________ ( ५५ ) जो समय शय्यंभव का है वही उसका भी है । शय्यंभव वीर नि. ७५ से ६० तक युगप्रधान पद पर रहे हैं अतएव उनका समय ई० पू. ४५२ से ४२६ है । इसी समय के बीच दर्शवेकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की होगी । उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य की कृति नहीं है किन्तु संकलन है । उत्तराध्ययन का उल्लेख अंगबाह्य रूप से धवला ( पृ० ६६ ) और सर्वार्थसिद्धि में ( १.२० ) है । उसपर नियुक्ति त्रूणि टीकाएं प्राकृत में लिखी गई हैं । इसी कारण उसकी सुरक्षा भी हुई है । उसका समय जो विद्वानों ने माना है वह है ई० पू० तीसरी चौथी शती । । आवश्यक सूत्र तो अंगागम जितना ही प्राचीन है जैन निग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करने की आवश्यक क्रियासंबंधी पाठ इसमें हैं । अंगों में जहाँ स्वाध्याय का उल्लेख आता है वहां प्रायः यह लिखा रहता है कि 'सामाइयाइणि एकादसंगाणि ( भगवती सूत्र ६३, ज्ञाता ५६, ६४ : विपाक ३३ ) ; 'सामाइयमाइयाई चोट्सपुव्वाई' ( भगवती सूत्र ६१७, ४३२ : ज्ञाता० ५४, ५५, १३० ) । इससे सिद्ध होता है कि अंग से भी पहले आवश्यक सूत्र का अध्ययन किया जाता था । आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन सामायिक है । इस दृष्टि से आवश्यक सूत्र के मौलिक पाठ जिन पर नियुक्ति, भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, चूर्णि श्रादि प्राकृत टीकाएँ लिखी गई हैं वे अंग जितने पुराने होंगे । अंगबाह्य आगम के भेद आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त-- इस प्रकार किये गये हैं । इससे भी · नाम धवला में प्राचीनता सिद्ध अतएव ज्ञान बढते गये हैं । इसका महत्त्व सिद्ध होता है । श्रावश्यक के छहों अध्ययनों के अंगबाह्य में गिनाए हैं । ऐसी परिस्थिति में आवश्यक सूत्र की होती ही है । आवश्यक चूँकि नित्यप्रति करने की क्रिया है वृद्धि और ध्यानवृद्धि के लिए उसमें पर समय-समय उपयोगी पाठ आधुनिक भाषा के पाठ भी उसमें जोड़े गये हैं किन्तु मूल पाठ कौन से थे इसका तो पृथक्करण प्राचीन प्राकृत टीकात्रों के आधार पर करना सहज है । और वैसा श्री पं० सुखलालजी ने अपने 'प्रतिक्रमण' ग्रन्थ में किया भी है । अतएव उन पाठों के ही समय का विचार यहाँ प्रस्तुत हैं । उन पाठों का समय भ० महावीर के जीवनकाल के आसपास नहीं तो उनके की प्रथम शती में तो रखा जा सकता है । निर्वाण के निकट या बाद पिण्डनियुक्ति दशर्वकालिक की टीका है और वह प्रा० भद्रबाहु की कृति है । १. डोक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60